Monday 22 April 2024

उत्तराखंड के 'खामोश चुनाव ' में दांव पर दिग्गजों की प्रतिष्ठा



 


अल्‍मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय सीट पूरी तरह से पर्वतीय और  चार जिलों बागेश्‍वर, चंपावत, पिथौरागढ़ और अल्‍मोड़ा, में फैली हुई संसदीय सीट है।  परिसीमन के बाद अल्मोड़ा- पिथौरागढ़ संसदीय सीट के अंतर्गत 14 विधानसभा क्षेत्र आते हैं।  धारचूला, डीडीहाट, पिथौरागढ़, गंगोलीहाट , कपकोट, बागेश्वर , द्वाराहाट, सल्ट, रानीखेत, सोमेश्वर , अल्मोड़ा, जागेश्वर, लोहाघाट और चम्पावत विधानसभा क्षेत्र अल्‍मोड़ा-पिथौरागढ़ लोकसभा सीट के अंतर्गत आते हैं ।  इस क्षेत्र को राजा बालो कल्याण चंद ने 1568 में बसाया था। महाभारत काल में यहां की पहाड़ियों और आसपास के क्षेत्रों में मानव बस्तियों जिक्र मिलता है। यह क्षेत्र चंदवंशीय राजाओं की राजधानी था।  धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ये इलाका काफी समृद्ध रहा है। इस संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाला पूरा इलाका चीन और नेपाल के साथ-साथ गढ़वाल सीमा से सटा हुआ है । इस संसदीय क्षेत्र में भले ही चार जिले आते हैं लेकिन  लोकसभा चुनावों में  मतदाताओं का मिजाज लगभग एक जैसा ही रहता है और रास्ट्रीय मुद्दे यहाँ ज्यादा हावी रहते हैं। 


अल्‍मोड़ा पिथौरागढ़ लोकसभा सीट लम्बे समय से अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट  है।   1957 में यह संसदीय क्षेत्र पहली बार अस्तित्व में आया। लम्बे समय तक इस सीट पर कांग्रेस का दबदबा रहा लेकिन दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों की तरह कांग्रेस की ज़मीन प्रदेश में भी खिसकने लगी और अल्मोड़ा सीट किसी भी अपवाद का हिस्सा नहीं बनी । अल्मोड़ा संसदीय सीट के राजनीतिक इतिहास में जाएं तो यहां से पहले सांसद देवीदत्त पंत चुने गए। वर्ष 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के देवीदत्त पंत ने सोशलिस्ट पार्टी के पूर्णानन्द उपाध्याय को हराया। 1957 के उपचुनाव में कांग्रेस के जंगबहादुर बिष्ट ने जनसंघ केसोबन सिंह जीना को पराजित किया। वर्ष 1962 के चुनाव में कांग्रेस के जंगबहादुर बिष्ट ने जनसंघ के प्रताप सिंह को पराजित किया। 1967 के चुनाव में कांग्रेस के ही जंगबहादुर बिष्ट ने जनसंघ के गोविन्द सिंह बिष्ट को पराजित किया। वर्ष 1971 के चुनाव में कांग्रेस के नरेन्द्र सिंह बिष्ट ने जनसंघ के सोबन सिंह जीना को हराया। वर्ष 1952 से 1971 तक इस लोकसभा सीट में  पांच चुनावों में लगातार कांग्रेस को इस सीट से जीत हासिल हुईl 1977 में पहली बार जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी को इस सीट से जीत मिलीl इसके बाद फिर इस सीट पर कांग्रेस ने वापसी कर ली । वर्ष 1977 के आम चुनाव में जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी ने कांग्रेस के नरेन्द्र सिंह बिष्ट को पराजित किया लेकिन 1980 में कांग्रेस ने वापसी की और कांग्रेसी नेता हरीश रावत ने जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी को पराजित किया। इस चुनाव में वे मुरली मनोहर पर भारी पड़े। वर्ष 1984 के चुनाव में फिर से कांग्रेस के हरीश रावत विजयी रहे। वर्ष 1989 में भी कांग्रेस के हरीश रावत का जलवा बरकरार रहा जिसमें उन्होंने उत्तराखण्ड क्रांति दल के काशी सिंह ऐरी को पराजित किया।

1991 के चुनावों में फिर से बाजी पलटी। इसमें रामलहर के चलते भारतीय जनता पार्टी ने इस सीट से अनजान प्रत्याशी जीवन शर्मा को उतारा और उन्होंने कांग्रेस के हरीश रावत के विजयी रथ पर विराम लगा दिया। इसके बाद इस सीट से वर्ष 1996, 1998, 1999 व 2004 में भाजपा के बची सिंह रावत लगातार चार लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज करते रहे। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बची सिंह रावत ने कांग्रेस की रेणुका रावत को हराया। 1980 से 1991 के बीच हुई 3 बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के हरीश रावत को इस सीट से जीत मिली। हालांकि वर्ष 1991 से यह सीट भाजपा के खाते में चली गई। भाजपा के जीवन शर्मा एक बार और बची सिंह रावत तीन बार यहां के सांसद चुने गए। क्षेत्र में राष्‍ट्रीय दलों का ही बोलबाला है। संसदीय क्षेत्र में केवल एक बार क्षेत्रीय दल उक्रांद ने जबरदस्‍त चुनौती दी थी।  सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने के बाद भी भाजपा और कांग्रेस के बीच शुरूआती दौर पर बराबर की टक्कर रही, वर्ष 2009 में कांग्रेस के प्रदीप टम्‍टा सांसद चुने गए तो वर्ष 2014 से भाजपा के अजय टम्‍टा यहाँ से दिल्ली पहुंचे लेकिन 2019 बीजेपी ने कांग्रेस की राजनीतिक ज़मीन पूरी तरह खिसका दी। 2019 में भाजपा के अजय टम्टा ने कुल मतदान का 65.5 प्रतिशत वोट प्राप्त कर रिकॉर्ड कायम किया। कांग्रेस प्रत्याशी प्रदीप टम्टा 31.2 प्रतिशत वोट ही ला सके। अब एक बार फिर प्रदीप टम्टा और अजय टम्टा आमने सामने हैं l यह लगातार चौथा अवसर है, जब दोनों चेहरे एक बार फिर आमने सामने हैं । 

ठाकुर-ब्राह्मण बाहुल्य इस संसदीय क्षेत्र के जातीय समीकरण पर नजर डालें तो यहां सर्वाधिक 44 प्रतिशत राजपूत व 29 प्रतिशत ब्राह्मण के साथ ही 27 प्रतिशत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ा वर्ग के लोग हैं। वर्ष 2009 में इस सीट के अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने के बाद से यहां कांग्रेस व भाजपा ने लगातार टम्टा बंधुओं पर ही भरोसा जताया है। अन्य दलित नेताओं की इस सीट से दावेदारी तो हुई, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। कांग्रेस से प्रदीप टम्टा एक बार फिर सफल रहे हैं। भाजपा प्रत्याशी अजय टम्टा संघ से नजदीकी और शिवप्रकाश की गुडबुक में संगठनकी  सक्रियता के चलते टिकट पाने में सफल रहे वहीं कांग्रेस ने भी एक बार फिर प्रदीप टम्टा पर भरोसा जताया है। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत के नजदीकी के चलते वह टिकट पाने में सफल रहे।अल्मोड़ा सीट पर कांग्रेस ने एक बार फिर से प्रदीप टम्टा पर ही दांव खेला है। जबकि इस क्षेत्र में कांग्रेस के कई अन्य नेता भी दावेदार थे। इनमें बसंत कुमार का नाम सबसे ऊपर माना जा रहा था। लेकिन इस सीट पर कांग्रेस ने टम्टा के सामने टम्टा का फार्मूला अपनाया। प्रदीप टम्टा 2009 में लोकसभा से चुनाव जीत चुके हैं और 2016 में कांग्रेस से राज्यसभा सांसद भी रहे हैं। पूर्व में सोमेश्वर के विधायक भी रह चुके हैं। इसके चलते कांग्रेस ने भाजपा के अजय टम्टा के खिलाफ प्रदीप टम्टा को मैदान में उतारा है। अल्मोड़ा सीट पर कांग्रेस  की स्थिति कुछ बेहतर है और चुनावी मुकाबले में कांग्रेस भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकती है। इसका एक कारण यह माना जा रहा है कि अजय टम्टा से क्षेत्र के मतदाताओं में  नाराजगी है। वह संसद में भी राज्य के सवालों को  उठाने में नाकामयाब रहे साथ ही दस वर्ष से उनके खिलाफ एंटीओ इंकम्बैंसी बानी है।   भाजपा भीतर इस सीट पर उम्मीदवार को बदलने की चर्चा थी लेकिन सभी कयासों को दरकिनार करते हुए अजय टम्टा को ही फिर से तीसरी बार उम्मीदवार बनाया गया । अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य,  शिक्षा,  संचार व्यवस्था के साथ ही विकास के तमाम सवाल पर भी प्रत्याशियों को दो-चार होना पड़ेगा, लेकिन कुछ ऐसे मुद्दे भी हैं जो चुनाव के दौरान उभर कर सामने  आ रहे हैं। अगर मुद्दों पर मतदान हुआ तो इस बार की राह आसान नहीं लग रही।  बागेश्वर, पिथौरागढ़ व चंपावत का एक बड़ा हिस्सा आपदा से प्रभावित है। नैनी सैनी से नियमित हवाई सेवाओं की शुरुआत न हो पाना भी एक बड़ा मुद्दा होगा।  अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में  युवा मतदाता बड़ी संख्या में 18 से 40 वर्ष आयु वर्ग के हैं  जो चुनाव परिणामों का रुख बदल सकते हैं। युवाओं के अपने मुद्दे हैं जो पार्टी प्रत्याशी युवाओं को लुभा पाएगा वह बाजी पलटने में सक्षम हो सकता है। युवा मतदाताओं की  शिक्षा व रोजगार के मुद्दे पर जनप्रतिनिधि कुछ खास नहीं कर पाए हैं लेकिन अजय टम्टा मोदी के नाम की माला से क्या इस बार वैतरणी पार कर पाएंगे ये बड़ा सवाल है?  अल्मोड़ा संसदीय सीट के अंतर्गत पूर्व सैनिक बड़ी संख्या में  वोटर हैं जो किसी भी प्रत्याशी का भाग्य बदलने के लिए काफी है। इसके अलावा इस संसदीय सीट से सर्विस मतदाताओं की संख्या भी अच्छी खासी है जो हार-जीत का समीकरण बना व बिगाड़  सकते हैं।

हरिद्वार संसदीय सीट  की अगर बात करें तो यह दो जिलों देहरादून और हरिद्वार को मिला कर बनी है l 1977 में परिसीमन के बाद ये निर्वाचन क्षेत्र अस्तित्व में आया था l मौजूदा समय में इस सीट के अंतर्गत चौदह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं l शुरूआत में भारतीय लोकदल के प्रभाव वाली इस सीट पर कांग्रेस ने पकड़ मजबूत करने में सफलता हासिल की थी, लेकिन 1991 के बाद कुछ एक मौके छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर समय भाजपा ने ही सदन में इस  क्षेत्र प्रतिनिधित्व किया है।  रामलहार में ये सीट भगवामय होती रही है।  1977 में जब ये सीट अस्तित्व में आई, तब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का यहां पर खासा दबदबा था। यही कारण रहा कि परिसीमन के बाद यहाँ से सबसे पहले  लोकदल का प्रतिनिधी चुन कर दिल्ली पहुंचाl  1980 में यह सीट जनता पार्टी ने जीती, लेकिन 1984 में समीकरण बदले और कांग्रेस लहर का असर  यहाँ के चुनाव परिणामों में देखने को मिलाl इसके बाद 1987 के उपचुनाव में भी कांग्रेस को यहाँ अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब मिली। यहाँ तक कि मंडल- कमंडल के दौर में यानि 1989 में भी  कांग्रेस ने यहाँ से जीत हासिल की l  लेकिन 1991 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए राम सिंह सैनी ने अपनी ज़मीनी पकड़ के कारण इस सीट पर समीकरणों को बदल दिया और सीट पर भाजपा ने अपना झंडा गाड़ दिया। इसके बाद ये संसदीय सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दी गई और भाजपा ने इस दौरान हरपाल साथी  को मैदान में उतारा जिन्होंने लगातार तीन चुनाव जीतकर एक रिकार्ड बनाया। इसके बाद हरिद्वार की जनता ने सपा पर भरोसा  जताया और 2004 में ये सीट सपा की झोली में  डाल द ।  2011 में परिसीमन होने के बाद इस लोकसभा क्षेत्र  का राजनीतिक मिजाज काफी प्रभावित हुआ। हरिद्वार सीट में देहरादून के तीन विधानसभा क्षेत्र डोईवाला, धर्मपुर और ऋषिकेश शामिल किए गए। बदलते चुनावी समीकरणों  के बीच भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा को इस क्षेत्र  पर नए सिरे से प्रयास करना पड़ा।  ये सीट 2009 में अनारक्षित श्रेणी में आ गई जिसके बाद कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत मैदान में उतरे और जीत दर्ज की लेकिन मोदी लहर में ये सीट फिर से  भाजपा के पाले में आ गई। पिछले दो  लोकसभा  चुनावों में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक लगातार दो बार जीत कर यहाँ से दिल्ली पहुंचे l हालाँकि  2014 में आम आदमी पार्टी ने भी यहाँ अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की और पहली पुलिस महानिदेशक रही कंचन चौधरी को मैदान में उतारा पर सफल नहीं हो सकी। हरिद्वार लोकसभा सीट 2009 से पूर्व सुरक्षित सीट थी, परंतु 2009 में कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत ने हरिद्वार का रुख किया तो हरिद्वार के मतदाताओं ने उनको हाथों हाथ लिया और हरीश रावत भाजपा प्रत्याशी स्वामी यतीश्वरानंद  को एक लाख से भी अधिक मतों से पराजित कर लोकसभा पहुंचे। 2014 के चुनाव में मोदी लहर के चलते इस सीट पर भाजपा नेता पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 592320 मत प्राप्त कर तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत की पत्नी रेणुका रावत को डेढ़ लाख से भी अधिक मतों से पराजित किया। 2019 में भी भाजपा ने डाॅ निशंक पर भरोसा जताते हुए उनको मैदान में उतारा तो कांग्रेस ने अप्रत्याशित रूप से पूर्व विधायक अंबरीश कुमार पर भरोसा जताया जिनको भी हार का सामना करना पड़ा था। डॉ निशंक मोदी लखर में दूसरी बार संसद गए और शिक्षा मंत्री बने। हरिद्वार संसदीय सीट से साल 2019 में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक ने जीत हासिल की थीl साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में निशंक ने कांग्रेस के अंबरीश कुमार को कुल 258729 वोटों के अंतर से हराया था l 

हरिद्वार के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो यहां से दो राष्ट्रीय पार्टियां भाजपा और कांग्रेस ही ज्यादातर चुनाव जीतती रही हैं। 1977 से लेकर अब तक हुए चुनावों में 5 बार भाजपा तो 5 बार कांग्रेस ने जीत दर्ज कराई है। 1977 में जनता पार्टी की लहर चली तो भगवानदास राठौड चुनाव जीते। 1980 में  इस सीट से लोकदल के जगपाल सिंह चुनाव जीते। 1984 में कांग्रेस के सुंदर लाल ने इस सीट पर कब्जा किया। इसके बाद 1987 में उन्हीं की पार्टी के राम सिंह सांसद चुने गए। 1989 में कांग्रेस टिकट पर जगपाल सिंह सांसद चुने गए। तीन बार लागतार कांग्रेस के प्रत्याशी विजयी होते रहे। इसके बाद लगातार चार बार भाजपा ने हरिद्वार लोकसभा सीट पर अपनी पताका फहराई। 1991 में भाजपा के राम सिंह और 1996 में हरपाल सिंह साथी सांसद बने। हरपाल सिंह साथी भाजपा के टिकट पर लगातार तीन बार  सांसद चुने गए। 1996 के अलावा 1998, 1999 में भी साथी चुनाव जीते। 2004 में समाजवादी पार्टी के राजेंद्र कुमार बाडी चुनाव जीते। 2009 में यहां के कांग्रेस के हरीश रावत सांसद चुने गए। 2014 में उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमेश पोखरियाल निशंक को भाजपा ने मैदान में उतारा। निशंक ने कांग्रेस के खांटी नेता हरीश रावत की पत्नी रेणुका रावत को चुनाव हराकर भारी वोटों से जीत हासिल की।  2014 में डॉ  रमेश पोखरियाल निशंक को मिले मत कांग्रेस प्रत्याशी रेणुका रावत के अलावा बसपा प्रत्याशी हाजी इस्लाम और आप प्रत्याशी कंचन चौधरी भट्टाचार्य समेत बाकी सभी 22 प्रत्याशियों को मिले कुल वोटों से ज्यादा थे। निशंक को 5 लाख 92 हजार 320 वोट मिले थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी रेणुका रावत को 4 लाख 14 हजार 498 मत हासिल हुए। 2014 में भाजपा प्रत्याशी डॉ रमेश पोखरियाल निशंक की जीत का अंतर एक लाख 77 हजार 822 रहा। 2019 में भाजपा इस रिकॉर्ड जीत को बरकरार रख पाती है या नहीं, यह तो समय ही बताएगा। इस सीट के अंतर्गत चौदह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं जिनमें  भेल रानीपुर , भगवानपुर (एससी), हरिद्वार, हरद्वार ग्रामीण, झबरेड़ा (एससी), ज्वालापुर (एससी), खानपुर, लक्सर, मंगलौर, पिरान कालियार, रुड़की, धर्मपुर, डोईवाला और ऋषिकेश l  हरकी पैड़ी, शक्तिपीठ मां मनसा देवी मंदिर, गायत्री तीर्थ शांतिकुंज,योगगुरु बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ और भारत की नवरत्न कंपनियों में शामिल भेल के साथ ही इस संसदीय सीट की जाती हैl  यहां का राजाजी टाइगर रिजर्व देश ही नहीं दुनिया में भी अपनी अलग पहचान रखता हैl 20 सालों में हरिद्वार लोकसभा सीट पर वोटरों की संख्या में रिकॉर्ड 122 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है 2004 के चुनाव में वोटरों की संख्या 914440 थी जो अब बढ़ कर  2031668 हो गई है l

इस बार भाजपा ने हरिद्वार सीट पर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को मैदान में उतारा है, वहीँ उनके मुकाबले कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत अपने बेटे के राजनीतिक करियर को मज़बूत करने का कोई मौका नहीं गवाना चाहते l ऐसे में हरिद्वार की लड़ाई काफी रोचक बन गई है। हरिद्वार लोकसभा सीट पर मुकाबला रोचक होने की संभावनाएं नजर आ रही हैं। जहां एक ओर स्थानीय और बाहरी प्रत्याशी के मुद्दे को हवा  दी जा रही है वहीँ  कांग्रेस को अंदरूनी कलह के चलते अपने नेताओं के दल-बदल करने का सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ सकता है,  वहीं संगठन स्तर पर मजबूत नजर आ रही भाजपा मोदी के नाम पर मतदाताओं को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। 6 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं एवं 22 प्रतिशत एससी वोटर को मिलाकर कुल 1835527 मतदाताओं की यह सीट 1977 से अस्तित्व में आई। मुद्दों की बात करें तो अगर राष्ट्रीय मुद्दों के आधार पर वोट पड़े तो यहाँ फिर से भाजपा मजबूत हो सकती है लेकिन डॉ रमेश पोखरियाल निशंक को  टिकट न मिलने से भाजपा में बड़ा तबका असंतुष्ट है।  डॉ निशंक कहने को हरिद्वार में हैं लेकिन लोकसभा प्रत्याशी त्रिवेंद्र के पक्ष में खड़े होने के बजाए इस सीट पर वह अपना खुद का जनसम्पर्क करने में ज्यादा लगे हुए हैं जिससे भाजपा की परेशानी बढ़ रही है।  इस सीट पर दो से ढाईलाख की मुस्लिम आबादी भी है जिस  पर सपा और बसपा डोरे दाल रही है।  हरीश रावत अगर खुद इस सीट से अगर प्रत्याशी होते तो कांग्रेस के लिए यहाँ पर अच्छी संभावनाएं शायद बन सकती थी लेकिन पुत्रमोह में हरदा ने बेटे के लिए ही चुनाव का प्रचार करना पसंद किया।  

 हरिद्वार संसदीय सीट दो जिलों देहरादून और हरिद्वार को मिला कर बनी है l 1977 में परिसीमन के बाद ये निर्वाचन क्षेत्र अस्तित्व में आया था l मौजूदा समय में इस सीट के अंतर्गत चौदह विधान सभा क्षेत्र शामिल हैं l शुरूआत में भारतीय लोकदल के प्रभाव वाली इस सीट पर कांग्रेस ने पकड़ मजबूत करने में सफलता हासिल की थी, लेकिन 1991 के बाद कुछ एक मौके छोड़ दिए जाएं तो ज्यादातर समय भाजपा ने ही सदन में इस  क्षेत्र प्रतिनिधित्व किया है 1977 में जब ये सीट अस्तित्व में आई, तब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का यहां पर खासा दबदबा था। यही कारण रहा कि परिसीमन के बाद यहाँ से सबसे पहले  लोकदल का प्रतिनिधी चुन कर दिल्ली पहुंचाl  1980 में यह सीट जनता पार्टी ने जीती, लेकिन 1984 में समीकरण बदले और कांग्रेस लहर का असर  यहाँ के चुनाव परिणामों में देखने को मिलाl इसके बाद 1987 के उपचुनाव में भी कांग्रेस को यहाँ अपना कब्जा बरकरार रखने में कामयाब मिली। यहाँ तक कि मंडल कमंडल के दौर में यानि 1989 में भी  कांग्रेस ने यहाँ से जीत हासिल की l  लेकिन 1991 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए राम सिंह सैनी ने अपनी ज़मीनी पकड़ के कारण इस सीट पर समीकरणों को बदल दिया और सीट पर भाजपा ने अपना झंडा गाड़ दिया । इसके बाद ये संसदीय सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कर दी गई और भाजपा ने इस दौरान हरपाल साथी  को मैदान में उतारा जिन्होंने लगातार तीन चुनाव जीतकर एक रिकार्ड बनाया। लेकिन इसके बाद हरिद्वार की जनता ने सपा पर भरोसा  जताया और 2004 में ये सीट सपा की झोली में  डाल दी   लेकिन 2011 में परिसीमन होने के बाद इस लोकसभा क्षेत्र  का राजनीतिक मिजाज काफी प्रभावित हुआ। हरिद्वार सीट में देहरादून के तीन विधानसभा क्षेत्र डोईवाला, धर्मपुर और ऋषिकेश शामिल किए गए। बदलते चुनावी समीकरणों  के बीच भाजपा, कांग्रेस, सपा व बसपा को इस क्षेत्र  पर नए सिरे से प्रयास करना पड़ाl  ये सीट 2009 में अनारक्षित श्रेणी में आ गई  जिसके बाद कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत मैदान में उतरे और जीत दर्ज की। लेकिन मोदी लहर में ये सीट फिर से एक बार BJP के पाले में आ गई l पिछले दो चुनावों में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक लगातार दो बार जीत कर यहाँ से दिल्ली पहुंचे l हालाँकि  2014 में आम आदमी पार्टी ने भी यहाँ अपनी किस्मत आजमाने की कोशिश की और पहली पुलिस महानिदेशक रही कंचन चौधरी को मैदान में उतारा पर सफल नहीं हो सकी।

24 सालों में हरिद्वार लोकसभा सीट पर वोटरों की संख्या में रिकॉर्ड 122 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। 2004 के चुनाव में वोटरों की संख्या 914440 थी जो अब बढ़ कर   2031668 हो गई है।हरिद्वार संसदीय सीट से साल 2019 में भाजपा के रमेश पोखरियाल निशंक ने जीत हासिल की। 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में निशंक ने कांग्रेस के अंबरीश कुमार को कुल 258729 वोटों के अंतर से हराया था। इस बार बीजेपी ने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को मैदान में उतारा है, वहीँ उनके मुकाबले कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत अपने बेटे के राजनीतिक करियर को मज़बूत करने का कोई मौका नहीं गवाना चाहते । ऐसे में हरिद्वार की लड़ाई काफी रोचक बन गई है।पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत विगत् एक वर्ष से हरिद्वार सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, वे वंशवाद की चपेट में आ खुद रणछोड़दास बन  कांग्रेस के कई नेताओं से नाराजगी मोल ले चुके हैं। ऐसा नहीं है कि हरिद्वार सीट पर कांग्रेस के पास उम्मीदवारों की कमी थी। प्रदेश अध्यक्ष करण माहरा के अलावा हरक सिंह रावत भी यहां से चुनाव लड़ने का दावा कर रहे थे।  खानपुर से निदर्लीय विधायक उमेश कुमार शर्मा को कांग्रेस से टिकट दिए जाने की भी बात हुई लेकिन इस पर हरीश रावत ने अपना विरोध जता दिया। राजनीतिक तौर पर हरीश रावत इस क्षेत्र में खासे जनाधार वाले नेता माने जाते हैं। अल्मोड़ा सीट से जब बार बार उनको ठुकराया गया तो 2009 में हरि  के इस द्वार के माध्यम से हरदा चुनाव जीतकर संसद पंहुचे थे। साथ ही उनकी हरिद्वार के हर मामले में सक्रियता भी रही और कांग्रेस के वोट बैंक के हिसाब से भी ये सीट उसके लिए मजबूत रही है। हरीश रावत अपने जनाधार का फायदा अपने पुत्र को कितना दिलवा पाएंगे यह तो चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा।  अगर हरीश रावत स्वयं यहाँ से चुनाव लड़ते तो मुकाबला बेहद दिलचस्प और कांटे का बन सकता था। त्रिवेंद्र सिंह रावत के सामने  संगठन और  पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे निशंक  को साधने की चुनौती रही है।  पूर्व में डोईवाला उपचुनाव में त्रिवेंद्र का हारना और 2012  में मुख्यमंत्री  रहते हुए बी सी खंडूड़ी का कोटद्वार से पराजित होना कैसे हुआ ये भी किसी से छिपा नहीं है।  खटीमा में धामी की हार कैसे  भाजपा के बड़े  नेताओं के चलते हुई और भीतरघात ने हरा दिया यह देखते हुए भाजपा की राह हरिद्वार में इस बार आसान नहीं लग रही।  खानपुर विधायक उमेश कुमार के निदर्लीय चुनाव में आने से  मामला  त्रिकोणीय बना था बसपा ने इस सीट से मुस्लिम कार्ड चलकर भाजपा और कांग्रेस को असहज करने का काम किया है। 

इधर नैनीताल-उधमसिंह नगर लोकसभा सीट ऐतिहासिक और राजनीतिक दोनों ही दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण सीट है।  भाजपा  ने जहाँ अजय भट्ट पर एक बार फिर भरोसा जताया है वहीँ कांग्रेस से प्रकाश जोशी मैदान में ताल ठोक रहे हैं। इसके अलावा बसपा सहित आठ अन्य प्रत्याशी भी चुनावी समर में शिरकत कर रहे हैं। नैनीताल-उधमसिंह नगर संसदीय सीट उत्तराखंड के दो जिलों, नैनीताल और उधम सिंह नगर, से मिलकर बना है। पहले ये केवल नैनीताल सीट हुआ करती थी और फिर 2008 में इसका विस्तार तराई के इलाकों में होते हुए उधम सिंह नगर को भी इसमें जोड़ा गया ।   यूं तो आज़ादी के बाद से ही ये सीट कांग्रेस का गढ़ रही है।  कहने को 17 आम चुनावों में 11 बार कांग्रेस ने यहाँ जीत दर्ज़ की है लेकिन प्रदेश के गठन के बाद बीजेपी की इस सीट पर धीरे धीरे पकड़ बनी और 2014 की मोदी लहर में ये सीट बीजेपी कैंप में शामिल हो गई और तब से अब तक भाजपा  मजबूती के साथ यहाँ पैठ बनाए हुए है l एक ओर बीजेपी जीत की हैट्रिक की तैयारियों में जुटी है वहीँ दूसरी ओर कांग्रेस के लिए ये सीट अब प्रतिष्ठा का सवाल बन गयी है l 1995 में नैनीताल के तराई वाले हिस्से को अगलकर उधमसिंह नगर जिला बनाया गया इसका नाम स्वतंत्रता सेनानी उधम सिंह के नाम पर रखा गया l उधम सिंह ने लंदन जाकर जालियावाला बाग हत्याकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की हत्या की थी।  नैनीताल उधमसिंह लोकसभा सीट का गठन साल 2008 में हुए परिसीमन के बाद हुआ था l नैनीताल-उधम नगर सिंह नगर लोकसभा सीट में दोनों ज़िलों के 14 विधानसभा क्षेत्र शामिल हैं।  उधमसिंह नगर के बाजपुर, गदरपुर, जसपुर, काशीपुर, खटीमा, किच्छा, नानकमत्ता, रुद्रपुर और सितारगंज जबकि नैनीताल जिले के पांच विधानसभा भीमताल, हल्द्वानी, नैनीताल, कालाढूंगी और लालकुआँ शामिल है ।  

नैनीताल-ऊधमसिंह नगर संसदीय क्षेत्र मतदाताओं के लिहाज़ से उत्तराखंड की दूसरी सबसे बड़ी सीट है । 2008 के परिसीमन के बाद 2009 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को जीत हासिल हुई थी।  कांग्रेस के करण चंद सिंह बाबा यहाँ से चुनकर संसद पहुंचे l इस चुनाव में बीजेपी के बच्ची सिंह रावत दूसरे नंबर पर रहेl  वहीं 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में ये सीट भाजपा के खाते में पहुंची।  2014 में भगत सिंह कोश्यारी  कांग्रेस के प्रत्याशी करण चंद सिंह बाबा को 2 लाख 84 हजार 717 मतों से हरा कर दिल्ली पहुंचे l इस चुनाव में भगत सिंह कोश्यारी को 6 लाख 36 हजार 769 वोट मिले थे जबकि कांग्रेस के करण चंद सिंह बाबा को 3 लाख 52 हजार 52 वोट हासिल हुए थी  लेकिन 2019 में बीजेपी ने अजय भट्ट को मैदान में उतारा और उनके सामने कांग्रेस के कद्दावर नेता हरीश रावत मैदान में थे।  इस चुनाव में अजय भट्ट को 7 लाख 72 हजार 195 वोट हासिल हुए जबकि हरीश रावत  के खाते में 4 लाख 33 हजार 99 वोट ही गए l

नैनीताल (6 विधानसभा सीट) और उधमसिंह नगर (9 विधानसभा सीट) जिले को कवर करने वाली इस लोकसभा सीट में कुल 15 विधानसभा सीटें हैं  कहा जाता है कि सबसे अधिक तराई की 13 विधानसभा सीट के वोटर ही यहां के लोकसभा प्रत्याशी का भविष्य तय करते हैं. पलायन करके तराई के क्षेत्र में बसे पहाड़ के लोग इन 13 विधानसभा सीटों में अच्छी खासी संख्या में रहते हैं. इसीलिए तराई के लोग ही इस लोकसभा सीट पर निर्णायक भूमिका में नजर आते हैं।  नैनीताल-उधमसिंह नगर लोकसभा सीट पर लगभग 19 लाख वोटर हैं जिसमें लगभग 10 लाख पुरुष वोटर और 9 लाख महिला वोटर शामिल हैं।  इस सीट पर उधमसिंह नगर का खटीमा शहर नेपाल देश से लगा हुआ है जबकि दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की सीमा से सटा हुआ है।  उत्तराखंड के साथ-साथ उत्तर प्रदेश से कई कर्मचारी यहां स्थित फैक्ट्री में काम करते हैं।  नैनीताल-उधमसिंह नगर क्षेत्र में ग्रामीण आबादी 63.11 फीसदी है जबकि 36.89 फीसदी शहरी जनसंख्या है. इसमें 16.08 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोगों की हिस्सेदारी है. जबकि 5.17 फीसदी अनुसूचित जनजाति की आबादी है. 17-18 प्रतिशत ओबीसी और 15 से 18 फीसदी क्षत्रिय और ब्राह्मण हैं. इस लोकसभा क्षेत्र में 15 फीसदी मुस्लिम समुदाय निवास करता है। क्षेत्र की कुल आबादी 25 लाख है।  

नैनीताल-उधमसिंह नगर लोकसभा सीट भारत रत्न पंडित गोविंद बल्लभ पंत की कर्मस्थली रही है।  यही कारण है कि 1951 में हुए पहले चुनाव से लेकर 1957 तक के चुनाव में उनके दामाद यहां से सांसद चुनते आए।  इसके बाद 1962, 1967 और 1971 के लोकसभा चुनाव में पंत के बेटे केसी पंत ने लगातार तीन बार जीत दर्ज की.राम लहर में हारे तिवारी: केसी पंत ने कांग्रेस के टिकट पर यहां से चुनाव लड़ा लेकिन 1977 में लोक दल के नेता भारत भूषण ने केसी पंत के जीत के रिकॉर्ड को तोड़ते हुए अपनी जीत दर्ज करवाई।  इसके बाद 1980 के चुनाव में एनडी तिवारी ने भारत भूषण को भारी मतों से हराया। 1984 के चुनाव में एनडी तिवारी ने अपने खास और करीबी सत्येंद्र चंद्र को यहां से बड़ी जीत दर्ज करवाई।  नारायण तिवारी को तब तक लोग देश का बड़ा नेता मान चुके थे लेकिन एनडी तिवारी की इस सीट पर 1989 में जनता दल के डॉक्टर महेंद्र पाल ने जीत दर्ज की।  1991 की राम लहर में नारायण दत्त तिवारी को इस सीट पर बलराज पासी के हाथों हार का सामना करना पड़ा।  इसके बाद 1998 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की इला पंत ने एनडी तिवारी को बड़े अंतर से हराया। 2002 में कांग्रेस के डॉ महेंद्र पाल ने इस सीट पर जीत दर्ज की।  इसके उपचुनाव में भी दोबारा वही जीते लेकिन साल 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के केसी सिंह बाबा ने लगातार दो बार कांग्रेस को ही जीत दिलाई लेकिन उनका जीत का ये रथ 2014 के लोकसभा चुनाव में थम गया।   भगत सिंह कोश्यारी ने सीट भाजपा की झोली में डाली।  इसके बाद साल 2019 के चुनाव में भाजपा के अजय भट्ट ने जीत दर्ज कराई। 2024 के चुनाव में भी भाजपा ने अजय भट्ट को अपना उमीदवार बनाया है।  हालाँकि काम के मामले में अजय भट्ट कुछ खास नहीं कर पाए हैं लेकिन उन्हें भी इस बार मोदी की माला का ही सहारा है।  अपने चुनाव प्रचार के बीच अजय भट्ट ने ये कहा मेरे कर्मों की सजा आप मोदी को नहीं देना।  यह कहकर कांग्रेस प्रत्याशी प्रकाश जोशी को एक बड़ा मुद्दा हाथ दे दिया। हालाँकि प्रकश जोशी की जगह पर अगर यहाँ महेंद्र पाल , भुवन कापड़ी , यशपाल आर्य को अगर प्रत्याशी बनाया जाता तो कांग्रेस के लिए यहाँ पर अच्छी संभावनाएं हो सकती थी लेकिन फिलहाल भाजपा अपने संगठन  और कैडर के वोटोंके बूते इस सीट पर आगे नजर आ रही है।     

टिहरी-गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र टिहरी, उत्तरकाशी व देहरादून जनपद की 14 विधानसभा सीटों को मिलाकर बना है। आज़ादी के समय टिहरी राज्य का भारत में विलय होने के बाद यहाँ आम चुनाओं में स्थानीय राज घराने  का काफी दबदबा रहा है।टिहरी गढ़वाल संसदीय सीट पूर्व में पौड़ी, दक्षिण में हरिद्वार, पश्चिम में हिमाचल प्रदेश और उत्तर में चीन की सीमा से सटा हुआ संसदीय क्षेत्र है। यह क्षेत्र  उत्तरकाशी, देहरादून और टिहरी गढ़वाल जिले के कुछ हिस्सों को शामिल कर बनाया है। कुल 14 विधानसभा क्षेत्र, पुरोला, यमुनोत्री, गंगोत्री, घनसाली, प्रतापनगर, टिहरी, धनोल्टी, चकराता, विकासनगर, सहसपुर, रायपुर, राजपुर रोड, देहरादून कैंट व मसूरी , इस संसदीय क्षेत्र में शामिल हैं। पर्यटन के लिहाज़ से ये संसदीय सीट काफी महतवपूर्ण है और उत्तराखंड की आर्थिक मजबूती बनाए रखने में इस क्षेत्र का खासा योगदान है l लाखमंडल, गोमुख, गंगोत्री, यमुनोत्री धाम तथा दुनियां का आठवां सबसे बड़ा टिहरी बांध सहित स्वामी रामतीर्थ की तप स्थली और श्रीदेव सुमन की कर्मस्थली इसी लोकसभा सीट के अंतर्गत आते हैं l इसके अतिरिक्त चम्बा, बुढा केदार मंदिर, कैम्पटी फॉल, देवप्रयाग आदि प्रसिद्ध स्थान भी इसी लोकसभा  क्षेत्र का हिस्सा हैंl

1949 में टिहरी राज्य का भारतीय संघ में विलय के होने के बाद 1951-52 के पहले लोकसभा चुनाओं में राजा मानवेंद्र शाह का नामांकन खारिज होने पर महारानी कमलेंदुमति को निर्दलीय चुनाव में उतारा गया और उन्होंने इस सीट पर पहले ही लोकसभा चुनाओं के बाद राज परिवार की उपस्थिति दर्ज़ करवा दी l इसके बाद हुए चुनावों में टिहरी रियासत के अंतिम राजा मानवेंद्र शाह 1957 में इस सीट से कांग्रेस के टिकट पर जीतकर संसद पहुंचे और 1967 तक वे इस सीट पर सांसद रहेl इसके बाद जब साल 1971 में कांग्रेस के टिकट से परिपूर्णानंद ने टिहरी लोकसभा सीट पर जीत दर्ज़ की l1977 में त्रेपन सिंह नेगी बीएलडी की टिकेट पर यहाँ से चुनाव जीते और 1980 में कांग्रेस में शामिल हो विजय हुए। एक बार फिर राज परिवार इस सीट से संसद के भीतर पहुंचे लेकिन बीजेपी की टिकेट पर l पहले 1991 और फिर 2004 में मानवेंद्र शाह भाजपा की टिकट पर सांसद चुने गए। इसके बाद साल 2009 में हुए चुनाओं में कांग्रेस ने वापसी करते हुए विजय बहुगुणा ने यहाँ से जीत हासिल की। लेकिन विजय बहुगुणा के प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने से खाली हुई इस सीट पर भाजपा ने मौजूदा सांसद राज्य लक्ष्मी शाह को उपचुनाओं के दौरान मैदान में उतार, जो तब से लगातार इस सीट पर अपना वर्चस्व कायम रखे हुईं हैंl राज्य लक्ष्मी शाह ने 2014 में कांग्रेस से साकेत बहुगुणा और 2019 में प्रीतम सिंह को शिकश्त दीl लेकिन ये दोनों ही जीत मोदी लहर के बीच भी बहुत बड़े फासले की जीत नहीं थी, कांग्रेस को 2014 में 31 फीसदी और 2019 में 30 फीसदी मत मिले थे। एक बार फिर बीजेपी ने माला राज्य लक्ष्मी शाह को चुनाव मैदान में उतारा है। उनका मुकाबला इस बार कांग्रेस प्रत्याशी जोत सिंह गुनसोला से होगा। गुनसोला पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन इस सीट पर सबसे अधिक निर्दलीय प्रत्याशी बॉबी पंवार की चर्चा है जिसने पेपर लीक के मसले को उठाकर उत्तराखंड की राजनीती में युवाओं के एक बड़े तबके के दिल को जीतने का काम किया है।  बॉबी को उक्रांद का भी समर्थन हासिल है लेकिन उनके पास भाजपा जैसे चुनाव लड़ने के संसाधन और बूथ मैनेजमेंट नहीं है।  अगर यह चुनाव बाबी हार भी जाते हैं तो उत्तराखंड की भविष्य की राजनीती में वो सितारे बन सकते हैं।  इस सीट पर बॉबी पंवार  के होने से कांग्रेस के वोटों में सेंध लगने की संभावनाएं जताई जा रही हैं।

 टिहरी लोकसभा सीट पर कुल 19.74 लाख मतदाता हैंl इनमें से 8.13 लाख पुरुष मतदाता हैं जबकि 7.60 लाख महिला मतदाता हैं l वहीँ 18 से 19 आयु वर्ग के मतदाताओं की संख्या 28,638 है, जबकि 85 वर्ष से अधिक उम्र वाले मतदाताओं की संख्या 12,999 हैl इसके अलावा दिव्यांग मतदाताओं की संख्या 16, 363 जबकि सर्विस वोटर की संख्या 12, 876 हैl टिहरी सीट पर लगातार तीन बार चुनाव जीतने वाली भाजपा की महारानी माला राजलक्ष्मी के मुकाबले कांग्रेस के जोत सिंह गुनसोला मैदान में हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में प्रीतम सिंह टिहरी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े हैं और तीन लाख से ज्यादा मतों से हार चुके हैं। अगर टिहरी सीट से प्रीतम सिंह कांग्रेस के स्वाभाविक उम्मीदवार होते तो मुकाबला जोरदार होता लेकिन प्रीतम सिंह चुनाव लड़ने से पहले ही इनकार कर चुके थे। 

राज्य की सबसे बड़ी और विषम भौगोलिक परिस्थिति वाली गढ़वाल संसदीय सीट है। प्रदेश के पांच जिलों को समेटती इस सीट में जहां तीन पर्वतीय जिले पौड़ी, चमोली व रुद्रप्रयाग हैं, वहीं टिहरी जिले के दो विधानसभा क्षेत्र देवप्रयाग व नरेंद्रनगर और नैनीताल जिले का रामनगर विधानसभा क्षेत्र शामिल है।सीट की विषम भौगोलिक परिस्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनावी दंगल में उतरने वाले प्रत्याशियों को जहां चीन सीमा से लगे नीती-माणा व केदारघाटी समेत उच्च हिमालयी क्षेत्र की खड़ी चढ़ाई नापनी पड़ती है, वहीं कोटद्वार भाबर के साथ ही रामनगर तक की दौड़ लगानी पड़ती है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अब तक हुए लोकसभा के चार चुनाव में इस सीट पर भाजपा का दबदबा रहा।यह सीट तीन बार भाजपा और एक बार कांग्रेस के पास रही। राज्य बनने के बाद वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के मेजर जनरल (सेनि) भुवनचंद्र खंडूड़ी ने इस सीट पर विजय प्राप्त की थी। वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट पर सतपाल महाराज ने इस सीट पर कब्जा जमाया।वर्ष 2014 में भाजपा के टिकट पर पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल (सेनि) भुवनचंद्र खंडूड़ी ने जीत दर्ज की। वर्ष 2019 में भाजपा के तीरथ सिंह रावत इस सीट पर विजयी रहे। तीरथ सिंह रावत को पूर्व मुख्यमंत्री भुवनचंद्र खंडूड़ी का राजनीतिक शिष्य माना जाता रहा है।

2019 के लोकसभा चुनाव में गढ़वाल संसदीय सीट में मतदाताओं की कुल संख्या 13,55,776 थी। इसमें 6,46,688 महिला और 6,74,632 पुरुष मतदाता थे। वर्तमान में  गढ़वाल संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या 13,58,703 है।  2019 में संपूर्ण गढ़वाल संसदीय सीट में पौड़ी जिले में सर्वाधिक 42.41 प्रतिशत से अधिक मतदाता रहे। रुद्रप्रयाग जिले में 14.13 प्रतिशत, चमोली में 22.40 प्रतिशत, टिहरी जिले की दो विधानसभा क्षेत्रों में 12.64 प्रतिशत और रामनगर विधानसभा क्षेत्र में 8.39 प्रतिशत मतदाता हैं। संसदीय सीट के अंतर्गत कुल 14 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे कम 79,061 मतदाता लैंसडौन में हैं। इस सीट पर करीब 84 प्रतिशत हिंदू, दस प्रतिशत मुस्लिम, चार प्रतिशत सिख और दो प्रतिशत इसाई मतदाता हैं। हिंदुओं के दो प्रमुख तीर्थ धाम बदरीनाथ और केदारनाथ के साथ पंच बदरी व पंच केदार के अलावा सिखों के प्रसिद्ध तीर्थ हेमकुंड साहिब समेत कई प्रमुख धार्मिक एवं पर्यटन स्थल इस क्षेत्र में हैं।गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल सेंटर का मुख्यालय भी इसी सीट के अंतर्गत है। गढ़वाल संसदीय सीट में सैन्य पृष्ठभूमि से जुड़े परिवारों की संख्या काफी अधिक है और यही मतदाता चुनाव में निर्णायक भूमिका का निर्वहन भी करते हैं।

प्रदेश में लोकसभा की पांचों सीटों पर भाजपा का सबसे ज्यादा फोकस गढ़वाल सीट पर ही रहा। इस सीट पर पूर्व राज्य सभा सांसद अनिल बलूनी के पक्ष में चुनावी प्रचार के लिए भाजपा के बड़े-बड़े नेता और स्टार प्रचारकों ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ के साथ-साथ केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा जैसे दिग्गजों ने बलूनी के पक्ष में जमकर पसीना तो बहाया, साथ ही वोटरों  को रिझाने के लिए कई गांरटियां मतदताओं के सामने रखने में कमी नहीं की। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह द्वारा अनिल बलूनी के प्रचार के दौरान दी गई गांरटी से साफ हो गया है कि भाजपा के लिए गढ़वाल सीट जीतना इस बार  आसान नहीं लग रहा  है। बलूनी की पैराशूट नेता की छवि के साथ ही दिल्ली में रहनेवाले नेता की छवि पूरे इलाके में बन रही है जिसको कांग्रेस के गणेश गोदियाल बेहतर ढंग से कैश करने में पीछे नहीं हैं।  गढ़वाल सीट पर सबसे ज्यादा  चर्चा कांग्रेस के उम्मीदवार गणेश गोदियाल को मिल रही है, जहाँ खुद गोदियाल अकेलेभाजपा के संसाधनों और स्टार प्रचारकों से लोहा ले रहे हैं।  वह राज्य के ऐसे नेता हैं जो पहली बार भाजपा को मोदी के अंदाज में चुनौती दे रहे हैं। गणेश गोदियाल के प्रचार  और जान अपील को देखकर ये  कहा जा सकता है भविष्य में उत्तराखंड में कभी कांग्रेस को कोई उबार सकता है तो वो नई पीड़ीके नेता गोदियाल ही होंगे।   जिस तरह से गोदियाल के पक्ष में  गाँवों से लेकर शहरों में युवाओं और महिलाओं का  का हुजूम उमड़ रहा है  उससे भाजपा परेशान हो चुकी है। अंकिता भंडारी हत्याकांड, भर्ती घोटाला, और अग्निवीर योजना के साथ-साथ केदारनाथ में सोना लगाए जाने के मामले को गोदियाल अपने चुनाव प्रचार में जमकर हवा दे रहे हैं। इससे भाजपा को न उगलते बन रहा है न निगलते। नरेंद्र मोदी की स्टाइल में गढ़वाली भाषण में बैटिंग कर रहे गोदियाल ने अभी तक पिच पर अपनी सफल बल्लेबाजी की है और अपना पूरा फोकस स्थानीय मुद्दों की तरफ किया हुआ है जिस पर जनता भी हामी भरती  दिखाई देती है।पत्रकार आशुतोष नेगी भी निर्दलीय इस सीट से मैदान में लड़ रहे हैं जिनको उक्रांद ने अपना समर्थन दिया है।  अंकिता भंडारी से जुड़े सवालों को वो लगातार अपनी सभाओं में उठा रहे हैं जिससे गढ़वाल की जंग इस बार स्थानीय के साथ दिल्ली केन्द्रित उमीदवार के विमर्श में आकर खड़ी  हो गई है।     

इस बार सीधे -साधे ईमानदार  नेता तीरथ सिंह रावत का टिकट काटकर भाजपा  गढ़वाल सीट पर बुरी तरह से फंस चुकी  है। दशकों से गढ़वाल सीट को भाजपा के लिए सुरक्षित माना जा रहा था लेकिन गोदियाल ने यहाँ अच्छा चुनाव लड़कर भाजपा को बैकफुट पर ला दिया है।   भाजपा के बड़े-बड़े नेता आये दिन  बलूनी के पक्ष में मतदताओं को रिझाने में लगे हैं लेकिन उसके पास गोदियाल की कोई काट नहीं मिल पा रही।चुनाव प्रचार के दौरान एक बार तो   केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह मतदाताओं को यह कहते हुए नजर आए कि आप बलूनी को सिर्फ एक सांसद के तौेर पर नहीं चुन रहे हैं, बल्कि बलूनी केंद्र में बड़े पद पर जाने वाले हैं इसके बाद भी गढ़वाल गोदियाल के पक्ष में खड़ा होता जमीनी स्तर पर दिखाई दे रहा है।  यहां तक कि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट जोशीमठ में बलूनी के पक्ष में वोट की अपील करते हुए  रो दिए।  यही महेंद्र भट्ट पहले जोशीमठ में प्रदर्शन करने वालों को माओवादी कह चुके थे।  अब चुनावी मौसम में उन्हीं के बीच हाथ जोड़ते और आंसू गिराते देखे। कांग्रेस का कोई स्टार प्रचारक तक गढ़वाल सीट पर प्रचार के लिए नहीं पंहुचा लेकिन गोदियाल जनसमर्थन और विश्वास से इस बार कांग्रेस को मजबूत स्थिति में लेकर आ गए हैं।  भाजपा  चमोली जिले में भाजपा कांग्रेस विधायक राजेंद्र भंडारी को अपने पाले में ला चुकी है लेकिन राजेंद्र के भाजपा में शामिल होने के बाद भंडारी के खिलाफ क्षेत्र के मतदाताओं में भारी रोष देखने को मिल रहा है जिसका नुकसान भाजपा को होने की आशंका बन गई है।  जोशीमठ  की भीषण आपदा के दंश से अभी तक वहां की जनता उबर नहीं पाई है और इसका खामियाजा भाजपा को उठाना पड़ सकता है।  केदारनाथ पुनर्निर्माण के कार्यों को लेकर भी सरकार के खिलाफ भारी नाराजगी बनी हुई है जिसका नुकसान बलूनी को हो सकता है।  इसी तरह से  पौड़ी, देवप्रयाग, कोटद्वार ,श्रीनगर , चौबट्टाखाल सीटों पर भाजपा द्वारा जमकर कांग्रेस में तोड़फोड़ की गयी है जिससे भाजपा का पुराना कार्यकर्ता नाराज हो चला है जिसका प्रभाव पूरी सीट पर दिखाई देता है।  नए-नए भाजपाई बने कांग्रेसी नेताओं को प्रचार में झोंकने से स्थानीय भाजपा नेताओं की पूछ परख काम हुई है  जो चुनाव में असर डाल सकती है। पौड़ी गढ़वाल सीट पर  2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार रहे मनीष खंडूड़ी ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया है लेकिन अपने पिता बी सी खंडूड़ी के वोटों पर वो कितना दखल रखते हैं ये इस चुनाव में सही से पता चल जाएगा।  बलूनी के पौड़ी सीट से उम्मीदवार बनाये जाने के बाद से ही  राज्य भाजपा के बड़े नेताओं की मुश्किलें बढ़ गई  हैं।  इन सभी नेताओं को खुद के भविष्य को लेकर खतरा लग रहा है जिस कारण वे मन से बलूनी के प्रचार में नहीं लगे हैं।  

बहरहाल राज्य गठन के 24 बरस बाद भी  प्रदेश की राजनीति में भाजपा और कांग्रेस का ही दखल रहा है।  राज्य बनने के बाद हुए  4 लोकसभा चुनाव हुए हैं जिनमें कांग्रेस और भाजपा की सरकारें रही। पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज एक सीट के साथ 38.31 प्रतिशत मत मिले थे तो वहीं भाजपा को तीन सीट मिलने के साथ 40.98 प्रतिशत मत मिले थे जो कि कांग्रेस से महज 2.67 प्रतिशत ही ज्यादा रहा। इसी तरह 2009 में भाजपा की खंडूड़ी सरकार होने के बावजूद कांग्रेस को पांच सीटों के साथ ही 36.11 प्रतिशत वोट हासिल हुए जबकि भाजपा को 2004 के मुकाबले लगभग 13 फीसदी वोटों का भारी नुकसान हुआ। 2014 के लोकसभा चुनाव में देश में मोदी की  सुनामी  रही  तब  भाजपा ने पाँचों सीटें 56 प्रतिशत वोट से अपने नाम की लेकिन इस चुनाव में भी कांग्रेस के खाते में भले ही एक सीट नहीं आ पाई हो उसका वोट प्रतिशत 34.40 प्रतिशत रहा जो कि 2009 के मुकाबले महज दो प्रतिशत ही कम रहा। मोदी लहर होने के बावूजद कांग्रेस पार्टी पर मतदाताओं ने अपना भरोसा नहीं खोया लेकिन इस बार 2024 की परिस्थितयां अलग हैं।  कांग्रेस के कद्दावर नेताओं ने जिस तरह से इस चुनाव में चुनाव लड़ने से इंकार किया है वह राज्य के साथ ही देश के भविष्य के लिए भी अच्छा संकेत नहीं है।  आज कांग्रेस की जो हालत है उसके लिए कांग्रेस के बड़े नेताओं की गुटबाजी और पार्टी आलाकमान  ही जिम्मेदार है लेकिन पुरानी गलतियों से भी देश की सबसे पुरानी पार्टी सबक लेने को तैयार नहीं है।  देखना होगा 4 जून को जब चुनाव परिणाम आएंगे तो लोकसभा में ऊंट किस करवट बैठेगा ? 

 

Wednesday 20 March 2024

जन -जन के मन को भाये 'मोहन' , 100 दिनों की 'विराट' पारी


 

  

 

मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव ने अपने 100  दिन के छोटे से कार्यकाल में अपने काम से न केवल जनता का दिल जीता है बल्कि अपने सख्त निर्णयों के माध्यम से राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने भी अपनी अलहदा पहचान बनाने में सफलता पाई है। शपथ ग्रहण करने के बाद उन्होनें योग्य अफसरों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां  देकर अपने बुलंद इरादों को सभी के सामने जता दिए।  इस छोटे से कार्यकाल में  उन्होनें अपनी खुद की नई टीम बनाई और सीएम आवास से लेकर मंत्रालय, संभाग और जिलों में बड़ी  प्रशासनिक सर्जरी करने से भी परहेज  नहीं किया।  बरसों तक मंत्रियों के स्टाफ  की नियुक्ति की फ़ाइल रोककर उन्होंने अपनी बनाई नई लकीर पर चलने का साहसिक निर्णय लिया। हर समय एक्शन में रहने वाले डा. मोहन यादव के तेवरों को देखकर आज प्रदेश में पूरी नौकरशाही सहमी हुई है। मंत्रालय का वल्लभ भवन एक समय कुछ चुनिंदा नौकरशाहों की राजनीति का नया पावर सेंटर और कोटरी  बन गया था। इसे देखते हुए वहाँ पर भी ताबड़तोड़  तबादलों से मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव  ने परहेज नहीं किया। हर किसी अधिकारी  के ट्रैक रिकार्ड को न केवल  खंगाला बल्कि कार्यक्षमताओं के अनुरूप सभी को नए कार्यों का प्रभार सौंपा। मुख्यमंत्री निवास से लेकर सचिवालय तक उनकी  देर रात तक होने वाली बड़ी  प्रशासनिक सर्जरी से प्रदेश में अभी भी हड़कंप मचा  है। लालफीताशाही पर लगाम  लगने से अब मध्यप्रदेश के विकास  को  डॉ. मोहन के दूरदर्शी नेतृत्व में नई  गति  मिल रही है। 

 सीएम डा. मोहन यादव बहुत तेजी से फैसले लेते हैं। इसकी बानगी शपथ के बाद तत्काल लिए गए निर्णयों को देखने से  मिलती है। जब से प्रदेश में मोहन सरकार बनी है तब से जहाँ एक ओर प्रदेश में जनता से जुड़े विकास कार्य तेजी से किये जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर माफियाओं और अपराधियों के खिलाफ जीरो टालरेंस की नीति पर भी तेज गति से काम चल रहा है जिसके कारण  बहुत कम समय में जनता का विश्वास मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव जीतते जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव जनता की समस्याओं का निराकरण तत्परता के साथ कर रहे हैं। हर  स्तर पर  डा. मोहन यादव के दूरदर्शी नेतृत्व में प्रदेश में बदलाव की बयार दिखायी दे रही है। 100 दिन के भीतर मुख्यमंत्री डा. यादव यह संदेश देने  में कामयाब हुए हैं , सरकार का मतलब जनता की सरकार है और अधिकारियों को जनता का सम्मान  करना ही  होगा। प्रदेश  के मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव के  कुशल नेतृत्व वाली सरकार में  बेलगाम नौकरशाही पर भी नकेल कसी गई है जिस कारण  मध्यप्रदेश का डबल इंजन विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। नए मुखिया की संकल्प शक्ति और तीव्र गति से निर्णय लेने की क्षमताओं से  मध्यप्रदेश में हर जगह एक नई तरह की कार्य संस्कृति और बदलाव देखने को मिल रहे हैं। भ्रष्टाचार और अफसरशाही पर लगाम कसने से प्रदेश में अब  विकास की  संभावनाओं  को नए पंख लग रहे हैं।

  मुख्यमंत्री की शपथ लेने के तुरंत बाद डा. मोहन यादव का पहला फैसला मध्यप्रदेश में धार्मिक स्थानों पर जोर से लाउड स्पीकर बजाने और खुले में मांस और अंडे की बिक्री पर सख्ती से रोक का रहा। इस फैसले का सभी ने तहे दिल से स्वागत किया।  अपराधियों के घरों पर मोहन  सरकार  भी अपनी बुलडोजर नीति पर चल रही है जिससे अपराधियों के मन में खौफ बैठ गया है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव ने दर्दनाक बस दुर्घटना का जब अवलोकन करने  जब गुना पहुंचे तो इस हादसे से सबक लेते हुए सभी कलेक्टर और पुलिस अधीक्षकों को निर्देश दे दिया  कि उनके क्षेत्र में बगैर परमिट के चलने वालों वाहनों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए और अवैध संचालन के लिए जिम्मेदार लोग यदि बाज न आए तो फिर दोषियों के विरुद्ध कठोर कदम भी उठाए जाएं। गुना बस हादसे के बाद  मुख्यंमंत्री ने जान गंवाने वाले लोगों के शोकाकुल परिवारों से मुलाकात की और  परिवहन विभाग की स्थिति की भी समीक्षा की। सीएम ने क्षेत्रीय परिवहन विभाग के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की और  परिवहन विभाग में भी फेरबदल कर दिया। सीएम डा.मोहन यादव का एक और काम जिसकी सबने तारीफ की, वो 24 घंटे के भीतर एक आईएएस अधिकारी का ट्रांसफर था। हिट-एंड-रन कानून के विरोध में ट्रांसपोर्टरों की हड़ताल के चलते एक कलेक्टर ने ट्रक ड्राइवर की 'औकात' पर कमेंट कर दिया था। उन्होंने तुरंत एक्शन लेते हुए कलेक्टर का ट्रांसफर कर दिया। अधिकारियों की ठसक से पंगु होते सिस्टम पर नकेल  कसने के लिए मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव नौकरशाही में ऊपर से लेकर नीचे तक बड़ी प्रशासनिक सर्जरी करने से भी नहीं कतराए।

  डा. मोहन यादव के काम करने का अपना अलहदा अंदाज है। वह अपने कामकाज के प्रचार से इतर तत्काल एक्शन करने पर यकीन करते हैं। वह अपने फैसले से  प्रदेश में हर दिन नई लकीर खींच रहे हैं।  शिवराज सरकार में वर्षों तक फ्रंटफुट  पर खेलने वाले बरसों तक जमे  चुनिंदा अधिकारी आज लूपलाइन में चले गए हैं।  लम्बे समय से जमे हुए बड़े-बड़े नौकरशाहों की तबादलों से यह बात स्थापित हो गई है कि मुख्यमंत्री डा.मोहन  नई बसाहट के साथ  काम करना चाहते हैं जो त्वरित निर्णय ले सके।  नई विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था होने से अब प्रदेश के विकास कार्यों में न केवल तेजी आयी है बल्कि समय -समय पर  मॉनीटरिंग  किये जाने से जनता के हित में  तेजी से निर्णय लिये जा रहे हैं। गुणवत्तापूर्ण विकास कार्य कराना मोहन सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता बनी है।

 मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव ने अपने 100 दिनों के कार्यकाल में पहली बार हुकुमचंद मिल इंदौर के 4 हजार 800 श्रमिकों को उनका हक दिलाया है। तीस वर्ष से अटके इस मामले को डॉ. मोहन यादव ने एक ही बैठक में निपटा दिया।  मध्यप्रदेश  सरकार, राजस्थान सरकार और केंद्र सरकार के बीच 28 जनवरी को श्रमशक्ति भवन स्थित जल शक्ति मंत्रालय के कार्यालय में संशोधित पार्वती-कालीसिंध-चंबल-ईआरसीपी लिंक परियोजना के त्रिपक्षीय समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर हुए जिससे मध्यप्रदेश के चंबल और मालवा अंचल के 13 जिलों की आम जनता को मिलेगा।  कई बरसों से लटके इस मामले को  मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव ने जयपुर में एक ही बैठक में निपटा दिया। मध्यप्रदेश में लंबे समय से  चिकित्सा शिक्षा विभाग के अंतर्गत प्रदेश के मेडिकल कॉलेज आते थे। इसकी वजह से केंद्र की योजनाओं को लागू करने में दिक्कत आती थी। डॉ. मोहन यादव ने  दोनों विभागों को मर्ज कर दिया। मुख्यमंत्री डॉ.मोहन यादव जनता के दुःख दर्द को समझने वाले  जननेता के रूप में भी उभरे हैं। जनता की समस्याओं का निराकरण करना उनकी पहली प्राथमिकता बनी है।  इन 100  दिनों में अलग-अलग संभागों में बैठक कर डॉ. मोहन यादव ने किसानों , युवाओं , महिलाओं और जनजातीय वर्ग के लिए कई  बड़े  ऐलान किये हैं।  रीवा से लेकर  उज्जैन, इंदौर से लेकर ग्वालियर सहित सभी प्रदेश के हर संभाग में उनकी सतत सक्रियता बनी है।  इस दौरान पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ  भी उनका बेहतर समन्वय  बना है और पहली बार प्रदेश में  सरकार और संगठन  एक दूसरे के करीब आये हैं।  मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने  श्रीराम पथ गमन न्यास की पहली बैठक में  अयोध्या की तर्ज पर  चित्रकूट में भी विकास कार्य करवाए जाने की बड़ी घोषणा की। जिन स्थानों से भगवान राम गुजरे  सरकार ने उन स्थानों को सड़क मार्ग से  जोड़ने का  ऐलान कर सनातन प्रेमियों का दिल जीतने का काम किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकसित भारत 2047 के विजन को आगे बढ़ाने के लिए मध्यप्रदेश की डॉ. मोहन यादव की सरकार ने  महाकाल की नगरी में ‘रीजनल इंडस्ट्रियल कॉन्क्लेव’ के सफल आयोजन किया जिसके माध्यम से प्रदेश में निवेश की बड़ी संभावनाएं बन रही हैं। उज्जैन धार्मिक पर्यटन के साथ  इंदौर और देवास से मिलकर एक महानगर के रूप में विकसित करने के लिए  मुख्यमंत्री प्रयत्नशील हैं।  अगर उनकी कोशिशें रंग लाई उज्जैन की पहचान  महाकाल की नगरी  के साथ ही साइंस सिटी, इंडस्ट्रीयल और एजुकेशन हब के रूप में भी होगी।

 मोहन सरकार की अब तक की दिशा देखकर स्पष्ट नजर आता है कि वह  पार्टी के संकल्प पत्र में किये गए वायदों को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा संचालित योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन  और मोदी की हर गारंटी पूरा करने के लिए डॉ. मोहन यादव ने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। मोहन सरकार में जनता से जुड़े निर्णय  जिस तरह से हल किये जा रहे हैं  उससे प्रदेश भर में एक सकारात्मक वातावरण निर्मित हुआ  है, उसने लोगों के दिल को जीतने का काम किया है।   मध्यप्रदेश के गरीब और मध्यमवर्ग के परिवारों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा परिवार में कोई सदस्य  अगर बीमार पड़ गया तो उसे एयर एम्बुलेंस जैसी सुविधा मिलेगी लेकिन डॉ. मोहन ने अपने कार्यकाल में प्रदेश की जनता को इसकी  बड़ी सौगात दी

 डॉ. मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाये जाने के कारण यूपी, बिहार में क्षेत्रीय दलों के सामने अपने परंपरागत यादव वोट बैंक को बचाने की चुनौती बढ़ने जा रही है। यह बात सभी मान रहे हैं कि डॉ. मोहन यादव के सीएम बनने से यूपी, बिहार, हरियाणा के यादव मतदाताओं की नई गोलबंदी भाजपा के पक्ष में हो सकती है। उत्तर प्रदेश में यादव मतदाताओं की संख्या 10- 12 प्रतिशत,  बिहार में 14.26 प्रतिशत और हरियाणा में 10 प्रतिशत के आसपास है। अभी तक यूपी में अखिलेश यादव और बिहार में लालू यादव ही अपने आपको यादवों का एकछत्र नेता घोषित करते आ रहे थे किंतु अब भाजपा के पास भी मुख्यमंत्री के रूप में डॉ. मोहन यादव एक उभरते  नेता बन चुके हैं।

 डा.मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं जिसमें पहला यह है कि अब मध्य प्रदेश में बीजेपी को भविष्य के लिए एक नया चेहरा उभरता हुआ ओबीसी चेहरा मिल चुका है जिसके  आसपास  प्रदेश का कोई भी नेता नहीं है।  दूसरा अब भाजपा आगामी लोकसभा चुनावों में एक यादव मुख्यमंत्री डा.मोहन यादव  के सहारे अपनी राजनीति  की नई  बिसात बिछाने जा रही है जिसका प्रभाव 2024 में  उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और हरियाणा तक में महसूस किया जा रहा है जिसके चलते  देश के इन सबसे बड़े सूबों में यादव समाज के बड़े नेता परेशान हो चले हैं। शुरुआत में प्रदेश के अधिकांश नेताओं और वरिष्ठ मंत्रियों को ये लगा पार्टी आलाकमान ने उनकी दावेदारी को अनदेखा कर तीसरी कतार के एक कनिष्ठ नेता को साढ़े आठ करोड़ की आबादी के मध्यप्रदेश की कमान सौंप दी जिससे सभी को काम करने में बहुत परेशानी होगी लेकिन अपने 100 दिन के कार्यकाल में  मुख्यमंत्री डा.मोहन यादव ने तमाम अटकलों को खारिज कर दिया है और अपने गुड गवर्नेंस के मॉडल को सभी के सामने पेश किया है जिसमें जनता  के हितों की अनदेखी होनी  फिलहाल तो मुश्किल दिखाई दे रही है। अधिकारियों को मौके पर लूप लाइन में डालने से लेकर जनता के प्रति जवाबदेह बनाने का नया 'मोहन मॉडल 'सबकी जुबान पर चढ़ रहा है। एमपी की जनता भी उनके  निर्णयों पर हामी भरती नजर आ रही है। पक्ष और विपक्ष भी उनकी नीतियों और काम करने के अलहदा अंदाज का का तोड़ नहीं निकाल पा रहा है। हालाँकि सरकार का 100 दिनों का कार्यकाल बहुत छोटा होता है लेकिन मोहन यादव ने अपने छोटे से कार्यकाल में इस बात को प्रदेश के भीतर स्थापित कर दिया है उन्हें कमतर आंकने की भूल कोई भी नहीं करे, वह मध्यप्रदेश की राजनीती नहीं बल्कि देश की सियासत में भी लम्बी रेस के घोड़े साबित होंगे।

Sunday 11 February 2024

राष्ट्रवादी चिंतक दीनदयाल

 

                                           

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक भारतीय विचारक, अर्थशास्त्री,  समाजशास्त्री,लेखक, पत्रकार, संपादक थे। भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी एक दौर में रहे। ब्रिटिश शासन के दौरान इन्होंने भारत द्वारा पश्चिमी धर्म निरपेक्षता का विरोध किया। उन्होनें लोकतंत्र की अवधारणा को सरलता से स्वीकार किया लेकिन पश्चिमी कुलीनतंत्र, शोषण और पूंजीवादी मानने से साफ़ इंकार कर दिया। पंडित जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन जनता की सेवा में लगा दिया।  भारतीय पत्रकारिता ने सदैव राष्ट्रवाद को पल्लवित करने का निर्वहन किया है। पत्रकारिता में राष्ट्रवादी स्वर को गति देने वाले पत्रकारों में पं. दीनदयाल उपाध्याय का नाम आदर के साथ  लिया जाता है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।

दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916, नगला चन्द्रभान, मथुरा, उत्तर प्रदेश में एक मध्यम वर्गीय प्रतिष्ठित हिंदू परिवार में हुआ था। उनके परदादा का नाम पंडित हरिराम उपाध्याय था, जो एक प्रख्यात ज्योतिषी थे। उनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय तथा मां का नाम रामप्यारी था। उनके पिता जलेसर में सहायक स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। दीनदयाल ने कम उम्र में ही अनेक उतार-चढ़ाव देखा, परंतु अपने दृढ़ निश्चय से जिन्दगी में आगे बढ़े। उन्होंने सीकर से हाईस्कूल की परीक्षा पास की जन्म से बुद्धिमान और उज्ज्वल प्रतिभा के धनी दीनदयाल को स्कूल और कालेज में अध्ययन के दौरान कई स्वर्ण पदक और प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए। दीनदयाल इण्टरमीडिएट की पढ़ाई के लिए 1935 में पिलानी चले गए। 1937 में इण्टरमीडिएट बोर्ड के परीक्षा में बैठे और न केवल समस्त बोर्ड में सर्वप्रथम रहे वरन सब विषयों में विशेष योग्यता के अंक प्राप्त किए। बिडला कॉलेज का यह प्रथम छात्र था, जिसने इतने सम्मानजनक अंको से परीक्षा पास की थी। सीकर महाराजा के समान ही घनश्याम दास बिड़ला ने एक स्वर्ण पदक, 10रू मासिक छात्रवृत्ति तथा पुस्तकों आदि के खर्च के लिए 250रू प्रदान किए। सन 1939 में सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। एम.ए. अंग्रेजी साहित्य में करने के लिए सेंट जॉन्स कॉलेज आगरा में प्रवेश लिया। इसके पश्चात उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा पास की लेकिन आम जनता की सेवा की खातिर उन्होंने इसका परित्याग कर दिया। 

 दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता में भी अग्रणी भूमिका रही है। अपने राष्ट्रवाद के विचारों को जनमानस तक प्रेषित करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय ने पत्रकारिता को माध्यम बनाया था। पत्रकारिता किस प्रकार से जनमत निर्माण करने में सहायक होती है, यह दीनदयाल जी ने बखूबी समझा था। एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय ने गांधी के विचार को पुनःव्याख्यायित करते हुए अंत्योदय की बात की। दीनदयाल जी ने राष्ट्रहित व चिंतन के विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। 

पं. दीनदयाल उपाध्याय एक कुशल पत्रकार और बेहतर संचारक थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभ लेखन, पुस्तक लेखन उनकी रुचि का विषय था। उन्होंने लिखने के साथ-साथ बोलकर भी एक प्रभावी संचारक की भूमिका का निर्वहन किया है। पंडित  दीनदयाल उपाध्याय ने लोक कल्याण को ही पत्रकारिता का प्रमुख आधार माना। दीनदयाल के पास समाचारों का न्यायवादी एवं समन्वयवादी दृष्टिकोण था। उनके लेखों, उपन्यासों व नियमित कॉलमों में निष्पक्ष आलोचना, उचित शब्दों का प्रयोग और सत्यपरक खबरों को ही मानवता के अनुकूल मिलता है।  राष्ट्र भक्ति को पल्लवित करने की भावना को साकार स्वरूप देने का श्रेय उंनकी पत्रकारिता को भी जाता है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय को साहित्य से एक अलग ही लगाव था शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय अपनी तमाम ज़िन्दगी साहित्य से जुड़े रहे। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। साहित्य से लगाव इतना की उन्होंने केवल एक बैठक में ही 'चंद्रगुप्त' नाटक लिख डाला था। भारत विभाजन के दौर में भयानक रक्तपात हुआ। देश, भारत को एक राष्ट्र मानने तथा भारत को द्विराष्ट्र मानने वाले में बंट गया। इसी हिंसाचार ने महात्मा गांधी को भी लील लिया। उनकी जघन्य हत्या हुई। देश के विभाजन की विभीषिका ने दीनदयाल जी को बहुत आहत किया। उन्होनें इस पर प्रखरतापूर्वक अपना पक्ष रखा। पंडित दीनदयाल के अनुसार अखण्ड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के  भारतीय दृष्टिकोण का परिचायक  है जो अनेकता में एकता का दर्शन करता है। अतः हमारे लिए अखण्ड भारत राजनैतिक नारा नहीं है, बल्कि यह तो हमारे संपूर्ण जीवनदर्शन का मूलाधार है।  

अखंड भारत की अवधारणा से संबंधित ऐतिहासिक, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का विश्लेषणार्थ उपाध्याय ने अखण्ड भारत क्यों? नाम की पुस्तिका लिखी, जिसमें उन्होंने प्राचीन भारत साहित्य के संदर्भित करते हुए भारत में युगों से चली आयी उस सांस्कृतिक एवं राजनैतिक परम्परा का उल्लेख किया है जो भौगोलिक भारत को एक एकात्म राष्ट्र के रूप में विकसित करने में समर्थ हुई थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का स्पष्ट मत था कि भारत माता को खण्डित किये बिना भी भारत की आजादी प्राप्त की जा सकती थी और भारत माता को परम वैभव तक पहुँचाने में हम अधिक तीव्रगति से सफल हो सकते थे किंतु पंडित नेहरू और जिन्ना के सत्ता  के लालच  और अंग्रेजों  की चाल में आ जाने से भारतवासियों का यह सपना पूर्ण नहीं हुआ और खण्डित भारत को आजादी मिली। दीनदयाल उपाध्याय के अनुसार व्यक्तिवाद अधर्म है। राष्ट्र के लिए काम करना धर्म है। दीनदयाल उपाध्याय बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे। उनमें एक कुशल शिक्षाविद, अर्थचिंतक, संगठनकर्ता, राजनीतिज्ञ, लेखक व पत्रकार सहित अनेक गुण थे। यह बात अलग है कि उन्हें लोग एकात्म मानववाद के प्रणेता के रूप और एक संगठन के कुशल सेवी के रूप में ज्यादा जाना जाता है। 

उनमें लेखन और संपादन का अद्भुत कौशल विद्यमान था। उनकी गणना उस दौर के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी जाती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व में पत्रकारिता का आदर्शवाद समाहित था। आजादी के समय में अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को आजादी दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण और जनजागरण के लिए समर्पित किया। दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में एक संपादक के सभी पत्रकारीय गुण  दिखाई पड़ते थे। दीनदयाल उपाध्याय मानते थे कि पत्रकारिता एक मिशनरी संकल्प है जिसे पूरी लगन एवं तल्लीनता से करनी चाहिए। समाजहित की पत्रकारिता में व्यावसायिक पत्रकार का कोई स्थान नहीं होता है।  पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने व्यस्त राजनीतिक जीवन से अनेक वर्षों तक आरगेनाइजर, राष्ट्रधर्म, पांचजन्य में ‘‘पॉलिटिकल डायरी’’ नामक स्तम्भ के अंतर्गत तत्कालीन राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रम पर गम्भीर विवेचनात्मक टिप्पणियां लिखते रहे।  दीनदयाल जी की टिप्पणी सामयिक और बहुत पते की होती थी।

 सन 1947 में पंडित  दीनदयाल ने राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड की स्थापना की जिसके अंतर्गत स्वदेश, राष्ट्रधर्म एवं पांचजन्य नामक पत्र प्रकाशित होते थे। दीनदयाल ने ‘पांचजन्य’, ‘राष्ट्रधर्म’ एवं ‘स्वदेश’ के माध्यम से राष्ट्रवादी जनमत निर्माण करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा एकात्म मानववाद का विकल्प एवं अंत्योदय का विचार उस कालखंड में दिया गया जब देश में समाजवाद, साम्यवाद जैसी आयातित विचारधाराओं का बोलबाला था। भारत में भारतीयता को पुनर्जीवित करने वाली विचारधारा की बजाय समाजवाद एवं साम्यवाद जैसी आयातित विचारधाराओं का बोलबाला होना भारतीयता के लिए अनुकूल नहीं था। पंडित जी ने भारत की समस्या को भारत के सन्दर्भों में समझकर उसका भारतीयता के अनुकूल समाधान देने की दिशा में एक युगानुकुल प्रयास किया। दीनदयाल जी ने अपने चिन्तन में आम मानव से जुड़ी जिन चिंताओं और समाधानों को समझाने का प्रयास आज से दशकों पहले किया था।  सही मायनों में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने  पत्रकारिता को भी इसी दृष्टि से एक नई दिशा दी। वे स्वयं कभी संपादक या औपचारिक संवादाता नहीं रहे। उन्होंने संपादकों और संवाददाताओं का सुखद सानिध्य प्राप्त किया। तभी संपादक व पत्रकार उन्हें सहज ही अपना मित्र एवं मार्गदर्शक मानते थे। पत्रकार के नाते पंडित जी का योगदान अनुकरणीय था।  दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी व्यवसाय नहीं थी । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए किया।  ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलंबन किया हो। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि पत्रकारिता करते समय राष्ट्र हित को सर्वोपरि मानना चाहिए।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और स्वदेश के माध्यम से पत्रकारिता के क्षेत्र में जो मूल्य और मानदंड स्थापित किया उसकी दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती। दीनदयाल उपाध्याय का पत्रकारीय चिंतन राष्ट्रवादी और भारतीय जीवन मूल्यों की विचारधारा से जुड़ता है। पत्रकारिता के आधार पर उन्होंने  राष्ट्र को समझने तथा भारतीय अस्मिता को लोगों तक पहुंचाने का गंभीर प्रयास किया है।

Thursday 25 January 2024

भारत और भारतीयता में रची बसी थी राजमाता




उनका आत्मविश्वास, साहस और कौशल विलक्षण था। भारतीय राजनीती में योगदान अप्रीतम था। वह ममतामयी थी। अपना जीवन उन्होनें ग्वालियर रियासत और मध्यप्रदेश की प्रगति और विकास के लिए झोंक दिया था। उनका जीवन पूरी तरह से जन सेवा के लिए समर्पित था। वह निडर थी। हमेशा लोगों के बीच रहकर काम करने में उन्हें आनंद आता था । एक तरफ उनमें सादगी, सरलता, संवेदनशीलता की त्रिवेणी बसती थी, वहीँआमजन  के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले  रहते थे। देश के मानस पटल पर कभी यदि कुशल नेतृत्व कला दिखाने वाली भारत की महिलाओं की सूची बनेगी तो उसके केन्द्र में सबसे पहले ग्वालियर की राजमाता का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। जब भी भाजपा और जनसंघ के स्वर्णिम इतिहास का जिक्र होगा उसमें ग्वालियर पर राज करने वाली राजमाता विजयाराजे सिंधिया का नाम सबसे ऊपर जरूर आएगा। राजमाता के नाम से जानी जाने वाली विजयराजे सिंधिया भाजपा के संस्थापक सदस्यों में से एक थी।

राजमाता अपने विचारों सिद्धांतों के प्रति हमेशा अडिग रहने वाली थी। भारतीयता में रची बसी वो ऐसी विदुषी जननायिका थी जिन्होंनें महलों की विलासिता और वैभव को छोड़कर हमेशा जनता से जुड़कर न केवल उनकी समस्याओं को उठाया बल्कि संघर्ष करने से कभी नहीं घबराई। इसके लिए सड़क पर उतरकर राजमाता होने के मायने समय -समय पर सबको  बताये और राजमाता से लोकमाता बन गई। उन्होनें जीवन पर्यन्त आम इंसान की जिंदगी को शिद्दत के साथ जिया और अपनी जनसेवा की ललक से आम जनता के दिलों में विशेष छाप छोड़ी। राजमाता जन -जन से जुड़ी रही और उनके बीच रहकर महिलाओं को हमेशा आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही। राजमाता के व्यक्तित्व में ऐसा आकर्षण था ,जो हर किसी को हमेशा राष्ट्र सेवा के लिए प्रेरित करता था। पद और सत्ता की लालसा हर किसी को आज आकर्षित करती है लेकिन राजमाता इन सबसे हमेशा दूर रही। 

राजमाता विजय राजे सिंधिया का जन्म मध्यप्रदेश के सागर जिले में राणा परिवार में ठाकुर महेंद्र सिंह और चूड़ा देवेश्वरी देवी के घर हुआ था। विजया राजे सिंधिया के पिता श्री महेंद्र सिंह ठाकुर और विंदेश्वरी देवी माँ थी। विजयाराजे सिंधिया का पहला नाम रेखा दिव्येश्वरी था।  विजया राजे सिंधिया ने अपना जीवन ग्वालियर और मध्य प्रदेश की प्रगति और विकास के लिए समर्पित कर दिया था । अपनी प्रखर क्षमता से उन्होनें भारतीय राजनीती को वैचारिक और नैतिक आधार देने में सफलता पाई । सही मायने में वे ऐसी  विदुषी महिला थी जिन्होंने भारतबोध को जिया  और उसकी समस्याओं के हल तलाशने के लिए कारगर प्रयास हमेशा किए। वे सही मायने में एक राजमाता से ज्यादा समाजसेवा में रची बसी महिला थी जिनमें अपनी माटी और उसके लोगों के प्रति संवेदना कूट-कूट कर भरी हुई थी । ‘सादा जीवन और उच्च विचार’ का मंत्र उनके जीवन का आदर्श था और भारत के आमजन में आज भी उनका नाम आदर और सम्मान से लिया जाता है ।

राजमाता का लालन - पालन उनकी दादी ने किया और अपना बचपन एक आम महिला की तरह बिताया। युवावस्था में उन्होंने बनारस के वसंत कॉलेज और लखनऊ के थोबर्न कॉलेज में अध्ययन करते हुए स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया जहां उन्होंने आज़ादी की नई अलख जगाई । आत्मविश्वास से लबरेज होकर उन्होनें समाज के सामने एक अलग छाप छोड़ी। इसी अलहदा पहचान ने ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया का ध्यान आकर्षित किया। जीवाजी राव ने पहली मुलाकात में ही राजमाता से विवाह का फैसला किया जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार किया। विजयाराजे सिंधिया का विवाह 21 फरवरी 1941 को ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया से हुआ था। 1950 के दशक में ग्वालियर हिंदू महासभा का गढ़ था । कांग्रेस पार्टी इस परिदृश्य से खुश नहीं थी और अफवाहें फैल रही थी कि यह पार्टी महाराजा के लिए समस्याएं खड़ी करेगी। जीवाजी राव मुंबई में अपने निजी काम में व्यस्त थे, इसलिए राजमाता ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिलने का फैसला किया और उन्हें समझा दिया कि महाराज कांग्रेस - विरोधी नहीं थे। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनका संदेह तभी दूर होगा जब जीवाजी राव कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। जब राजमाता ने नेहरू को समझाया कि जीवाजी राव का राजनीति में प्रवेश करने का इरादा नहीं है , तो प्रधानमंत्री ने राजमाता को महाराज के स्थान पर खड़े होने के लिए कहा। अगर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी होते  तो राजमाता चुनाव लड़ने के लिए राजी हो जातीं और ग्वालियर से जीत जाती लेकिन जीवाजी राव की रक्षा के लिए की गई यह राजनीतिक संधि लंबे समय तक नहीं चली।

1967 के चुनावों से पहले मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा के साथ मतभेदों के बाद राजमाता सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ की ओर से विधानसभा के लिए चुनाव लड़े और एक स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर लोकसभा चुनाव। वे दोनों चुनाव जीते और औपचारिक रूप से जनसंघ में शामिल होने के बाद विधान सभा के सदस्य बनने का फैसला किया। गोविंद नारायण सिंह को जब मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था, तब राजमाता पर पहली बार लोगों का ध्यान गया। मध्यप्रदेश की विधान सभा रोचक मोड़ उस समय आया जब 36 सदस्यों ने अपना समर्थन वापस ले लिया और गोविन्द नारायण सिंह की सरकार को गिरा दिया। उस दौर को याद करें तो पहली बार मध्य प्रदेश पहली बार ‘कांग्रेस - मुक्त ’ हो गया जिसमें परदे के पीछे राजमाता की बिछाई बिसात ने काम किया। संयुक्त विधानमंडल नाम की एक संधि सरकार का गठन उस दौर में किया गया था जिसकी अध्यक्षता खुद राजमाता ने की।

मध्यप्रदेश में उस दौर में कांग्रेस की सरकार थी और द्वारका प्रसाद मिश्र मुख्यमंत्री थे। एक दिन एक मीटिंग में मिश्र ने राजमाता को इंतजार करा दिया। उस समय हुए एक छात्र आंदोलन के कारण विजयाराजे और सीएम के बीच मनमुटाव चल रहा था। इस इंतजार ने उस मनमुटाव में आग में घी की तरह काम किया और राजमाता इसे अपना अपमान मान बैठी। वहां से जब राजमाता लौटी तो उन्होंने कांग्रेस सरकार के गिराने का संकल्प कर लिया। विजयाराजे कांग्रेस छोड़ जनसंघ से जा मिली और मिश्रा सरकार को गिराने की तैयारियों में जुट गईं। राजमाता ने इसके लिए कांग्रेस विधायकों को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया। देर रात तक विधायकों को तोड़ने की रणनीति गोविंद नारायण सिंह के साथ बनाई। जब विधायकों की संख्या 36 हो गई तो राजमाता ने उन्हें दो गोपनीय स्थानों पर रखा। अगले रोज इन विधायकों को राजमाता की बस में बैठाकर ग्वालियर ले जाया गया। यहां विधायकों को विजयाराजे ने बसों में बैठाकर दिल्ली भेज दिया गया। इस तरह राजमाता के आशीर्वाद से गोविंद नारायण को सीएम की कुर्सी मिल गई। राजमाता ने यहां विधायकों की मुलाकात मोरारजी देसाई और यशवंतराव चव्हाण से करवाई। विधायकों को जब वापस भोपाल लाया गया तो फिर विजयाराजे ने अपनी निजी सुरक्षा में ही इन्हें वापस लेकर आई। विधायकों के आने के बाद डीपी मिश्रा को इस्तीफा देना पड़ गया। अपनी मजबूत किलेबंदी से जिस दिन उन्होंने तत्कालीन कांग्रेस सरकार को पलट दिया और गठबंधन सरकार बनाई । पहली बार मप्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनी। 'संयुक्त विधायक दल' नाम के गठबंधन ने सरकार बनाई जिसमें राजमाता सर्वोच्च नेता बनीं और सिंह मुख्यमंत्री। हालांकि यह प्रयोग डेढ़ साल चल सका और फिर राजमाता व सिंह के बीच मतभेद हो गए और तत्कालीन मुख्यमंत्री मिश्र की कांग्रेस सरकार गिराने वाले सिंह फिर कांग्रेस में चले गए। उसी समय भारतीय राजनीतिक के फलक पर राजमाता सूर्य की भांति चमकी और जनता की सेवा के लिए राजमाता जनसंघ में शामिल हुई।

जनसंघ में एक प्रभावशाली और सबसे लोकप्रिय नेताओं में से राजमाता एक थी। उनके नेतृत्व में जनसंघ ने 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी की लहर का सामना किया और ग्वालियर क्षेत्र में तीन सीटें जीती। एक बार अटल जी और आडवाणी जी ने उनसे जनसंघ के अध्यक्ष बनने का आग्रह किया था लेकिन उन्होंने एक कार्यकर्ता के रूप में ख़ुशी ख़ुशी जनसंघ की सेवा करना स्वीकार किया। राजमाता ने अपना वर्तमान राष्ट्र के भविष्य के लिए समर्पित कर दिया था। राजमाता पद और प्रतिष्ठा के लिए नहीं जीती थीं, न ही उन्होंने राजनीति की थी लेकिन जब उसने भगवान की पूजा की तो उनके मंदिर में भारत माता की बड़ी तस्वीर भी थी जो माटी के प्रति उनके अनुराग को दिखाता है। उनकी उनकी सेवाओं को सारे देश ने देखा और उसके स्पंदन को बखूबी महसूस किया। उनकी राष्ट्र के प्रति सेवा की जिजीविषा ने ही उन्हें राजमाता से लोकमाता बनाया और समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत किया।

भारतीय जनसंघ से भाजपा तक उनकी यात्रा में अनेक उतार - चढ़ाव आए लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांत और विचारधारा के प्रति जो समर्पण रहा उसे कभी नहीं छोड़ा। अटल जी और आडवाणी 1972 में उनके सामने आए।  एक बार जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के लिए दोनों ने उनके साथ लम्बी मंत्रणा भी की। राजमाता ने कहा कि मुझे एक दिन का समय चाहिए। राजमाता जब दतिया के प्रमुख पीतांबरा माता के शक्तिपीठ गई , तो गुरुजी के साथ चर्चा की और अटल और आडवाणी जी से कहा कि वह एक कार्यकर्ता के रूप में भारतीय जनसंघ की सेवा करना जारी रखेंगी। पदों के प्रति उनमें कभी कोई आकर्षण नहीं था। वह इसे ठुकारने में भी देरी नहीं लगती थी और खुलकर सबके सामने अपनी बात मजबूती एक साथ रखती थी।

अटल, आडवाणी और कुशाभाऊ ठाकरे जी जैसे राजनीती के पुरोधाओं के सानिध्य को पाकर वह अभिभूत हुई और भारतीय जनसंघ को पल्लवित करने में अपनी जी-जान लगाई। भारतीय जनसंघ से भाजपा तक की उनकी यात्रा में उतार - चढ़ाव थे लेकिन उन्होंने अपने सिद्धांतों और विचारधारा के प्रति समर्पण कभी नहीं छोड़ा। वह कई दशकों तक जनसंघ की सदस्य रहीं। जनसंघ के नेता के कारण राजमाता सिंधिया ने पूरे देश का लम्बा दौरा किया और पार्टी के लिए खुलकर प्रचार किया। भाजपा के लिए वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने में राजमाता सिंधिया ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया। जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कराया तो उन्होंने राजमाता को अपने पास बुलाया और उनसे 20 सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने को कहा था। उस समय राजमाता ने अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए इंदिरा के इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था। उन्होंने साफ तौर पर कहा था कि मैं जनसंघ की विचारधारा को नहीं छोड़ सकती। उन्होंने यह तक कह दिया कि मैं जेल जाना पसंद करूंगी लेकिन आपातकाल जैसे काले कानून का कभी समर्थन नहीं करूंगी। विचारधारा के प्रति ऐसी प्रतिबद्धता शायद ही आज के दौर में किसी नेता में देखने को मिले। राजमाता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री  इंदिरा गाँधी  के सामने झुकने के बजाए जेल जाना पसंद किया और अपनी विचारधारा से नहीं डिगी।

जिस तरह इंदिरा गाँधी  के पिता ने जीवाजी को संकट से बचाने के नाम पर विजय राजे को कांग्रेस से जोड़ा था, उसी तरह इंदिरा गाँधी ने विजय राजे के बेटे माधवराव सिंधिया को अपनी मां की भलाई का वादा करके जनसंघ छोड़ने के लिए मजबूर किया। माधवराव ने कांग्रेस के समर्थन में गुना के निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जनता पार्टी की लहर के बावजूद जीत गए। 1980 में वे औपचारिक रूप से कांग्रेस के सदस्य बने और तीसरी बार गुना से चुनाव जीते। 1984 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में , उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ग्वालियर से लड़ाई लड़ी। राजमाता ने अनिच्छा से अपने बेटे की मदद की। हालांकि उन्होंने केवल अटल बिहारी के लिए अपना चुनाव प्रचार किया। अभियान के दौरान उन्होंने कहा था कि उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि सिंधिया परिवार की गरिमा बनी रहे। हालांकि उन्होंने वाजपेयी के लिए कहा लेकिन जनता समझ गई कि यह माधवराव को जीतने के लिए कहा गया था। क्षेत्र में राजमाता की लोकप्रियता समान रही। 1980 में जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर ने राजमाता से आग्रह किया कि वे रायबरेली से जनता पार्टी की ओर से इंदिरा गांधी से लोकसभा चुनाव लड़ें। राजमाता ने कहा कि पार्टी को फैसला करना चाहिए। राजमाता खुद रायबरेली गईं और इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ा। वे पीछे नहीं हटी । बेशक उस दौर में वह चुनाव हार गई लेकिन उन्होंने संगठन के निर्णय का पालन कर राजनीति में अपना आदर्श स्थापित किया । राजमाता  भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर संसद भी पहुंची जिसके बाद 1991, 1996 और 1998 में भी वह इस सीट से जीतकर लोकसभा पहुंचती रही। उन्होंने 1999 में चुनाव नहीं लड़ा। 25 जनवरी 2001 में उनकी मृत्यु हो गई।

राजमाता ने भाजपा की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके साथ ही उन्हें पार्टी का उपाध्यक्ष से बनाया गया। जब पार्टी ने राम जन्मभूमि आंदोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई तब राजमाता ने भी इसको बखूबी आगे बढ़ाते रही। 6 दिसंबर 1992 में बाबरी विध्वंस के दौरान राजमाता विजयाराजे सिंधिया भी विवादित स्थल के नजदीक मंच पर वरिष्ठ नेताओं के साथ मौजूद थी। इस दौरान उन्होंने वहां मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए भाषण भी दिया था। अन्य हिंदू नेताओं के साथ राजमाता ने भी कारसेवकों का मंदिर आंदोलन में नेतृत्व किया था। 1988 में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यपरिषद में राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहली बार राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव लेकर आईं थी। केंद्र में जब जनता पार्टी की सरकार बनी। उस समय तत्कालीन नेताओं को कई सरकारी पद दिए गए थे लेकिन राजमाता ने उसे स्वीकार नहीं किया। बाद में राजमाता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद में शामिल हो गईं। भारतीय राजनीति में सिंधिया राजघराने की बात जब भी होती है तो इस राजघराने के बेटा - बेटियों की चर्चा खूब होती है। विजया राजे सिंधिया के बेटे माधवराव सिंधिया पहले जनसंघ में रहे। बाद में वह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बने। उन्होंने केंद्रीय मंत्री के रूप में भी देश की सेवा की। माधवराव सिंधिया के बेटे और विजयाराजे सिंधिया के पोते ज्योतिरादित्य सिंधिया वर्तमान में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। विजयाराजे सिंधिया की दो बेटी वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे भाजपा की वरिष्ठ नेता हैं। वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री रह चुकी हैं जबकि यशोधरा राजे सिंधिया पूर्व सांसद के साथ मध्यप्रदेश की सरकार में  पूर्व खेल मंत्री भी रह चुकी हैं। कम समय में अपनी जनसेवा से यशोधरा राजे ने भी मध्य प्रदेश की राजनीती में बड़ा मुकाम हासिल किया है। 

राजमाता ने भारतीय राजनीति में एक ऐसी सशक्त महिला के तौर पर पहचान बनाई जिसमें जनता के लिए हमेशा कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। उसकी दूसरी मिसाल आज तक भारतीय राजनीती में देखने को नहीं मिलती। हमेशा जनता से सीधा जुड़ाव, संवाद और राष्ट्रहित के प्रति सेवा करने की उनकी भावना ने उन्हें  सही मायनों में लोकमाता बना दिया। अपनी सरलता, सहजता और संवेदनशीलता से उन्होनें सबका दिल जीत लिया। राजघराने से ताल्लुक रखने के बाद भी जनता के हर दर्द में सहभागी बनने की उनकी सेवा भावना का हर कोई मुरीद हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी भी उनकी विलक्षण प्रतिभा के कायल रहे हैं। कई बार सार्वजनिक मंचों से वे बता चुके  हैं कैसे  पार्टी के साधारण से साधारण कार्यकर्ता का ध्यान राजमाता  एक मां की तरह रखती थी।  

Tuesday 14 November 2023

दीपोत्सव पर समाज को नई राह दिखलाएं




हिन्दू परंपरा में त्यौहार से आशय  उत्सव और हर्षोल्लास से लिया जाता है। अपने देश की बात  की जाए  तो यहाँ मनाये जाने वाले त्योहारों में विविधता में एकता के दर्शन होते हैं। यहाँ मनाये जाने वाले सभी त्योहार कमोवेश परिस्थिति के अनुसार अपने रंग , रूप और आकार में भिन्न हो सकते हैं लेकिन इनका अभिप्राय आनंद की प्राप्ति ही होता है। बेशक अलग -अलग धर्मों में त्यौहार मनाने के विधि विधान भिन्न हो सकते हैं लेकिन सभी का मूल मकसद बड़ी आस्था और विश्वास  का संरक्षण होता है । सभी त्योहारों से कोई न कोई पौराणिक कथा जुडी हुई है  जिनमें से सभी का सम्बन्ध आस्था और विश्वास से है। यहाँ पर यह भी कहा जा सकता है इन त्योहारों की  पौराणिक कथाएँ भी प्रतीकात्मक होती हैं। कार्तिक मॉस की अमावस के दिन दीपावली  का त्यौहार मनाया जाता है । दीपावली का त्यौहार महज त्यौहार ही नहीं है, इसके साथ कई पौराणिक गाथाएं  भी  जुडी हुई हैं ।
 
दीपावली की  शुरुआत  आमतौर पर कार्तिक मॉस की कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन से होती है जिसे धनतेरस कहा जाता है। इस दिन आरोग्य के देव धन्वन्तरी की पूजा अर्चना का विधान है । धन्वन्तरि जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथों  में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरि चूँकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है।  लोकमान्यताओं  के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन वस्तु खरीदने से उसमें कई गुना   वृद्धि होती है। इस अवसर पर लोग धनियाँ के बीज खरीद कर भी घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं।

 धनतेरस के दिन चाँदी खरीदने की भी प्रथा है जिसके सम्भव न हो पाने पर लोग चाँदी के बने बर्तन खरीदते हैं। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में सन्तोष रूपी धन का वास होता है। सन्तोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है वही आज के समय में लोगों को नहीं है । जिसके पास सन्तोष है वह स्वस्थ है, सुखी है, और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरि जो चिकित्सा के देवता भी हैं। उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। इसी दिन भगवान  को प्रसन्न रखने के लिए नए नए बर्तन , आभूषण खरीदने का चलन  लम्बे समय से चला आ रहा  है। यह अलग बात है मौजूदा दौर में  बाजार अपने हिसाब से सब कुछ तय कर रहा है और पूरा देश चकाचौंध के साये में जी रहा है जहां अमीर के लिए दीवाली ख़ुशी का प्रतीक है वहीँ गरीब आज भी दीपावली उस उत्साह और चकाचौंध के साये में जी कर नहीं मना पा रहा है जैसी उसे अपेक्षा है।  आज  समाज में अमीर और गरीब की खाई दिनों दिन गहराती ही जा रही है।
 
 धनतेरस के दूसरे दिन नरक चौदस मनाई जाती है जसी छोटी दीपावली भी कहते हैं। कहा जाता है कि जब वासुदेव  श्रीकृष्ण ने नरकासुर राक्षस के प्राण हरे थे, तो उसके बाद उन्होंने तेल और उबटन से स्नान किया था और यहीं  से उबटन लगाने की परंपरा शुरू हुई।  ऐसा माना जाता है इस दिन कृष्ण ने नरकासुर रक्षक का वध कर उसके कारागार से तकरीबन 16000 कन्याओं को मुक्त किया था।माना जाता है कि नरक चतुर्दशी के दिन ऐसा करने से नरक से मुक्ति मिलती है और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस वजह से इस दिन महिलाएं खासतौर से उबटन से स्नान करती हैं। स्वर्ग के साथ उन्हें सौभाग्य का भी वरदान मिलता है।  

इस दिन किसी पुराने दिए में  सरसों के तेल में पांच  अन्न के दाने डालकर घर में जलाकर रखा जाता है जो दीपक यम दीपक कहलाता है। तीसरे दिन अमावस की रात दीपावली का त्यौहार उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन गणेश जी और लक्ष्मी की स्तुति की जाती है । दीवाली के बाद अन्नकूट मनाया जाता है। लोग इस दिन विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन की पूजा करते हैं। 

पौराणिक मान्यता है कृष्ण ने नंदबाबा और यशोदा और ब्रजवासियों को इन्द्रदेव की पूजा करते देखा ताकि इन्द्रदेव ब्रज पर मेहरबान हो जाये तो उन्होंने ब्रज के वासियों को समझाया कि जल हमको गोवर्धन पर्वत से मिलता है जिससे प्रभावित होकर सबने गोबर्धन को पूजना शुरू कर दिए। यह बात जब इंद्र को पता चली तो वह आग बबूला हो गए और उन्होंने ब्रज को बरसात से डूबा देने की ठानी  जिसके बाद भारी वर्षा का दौर बृज में देखने को मिला।  सभी  रहजन वासुदेव श्रीकृष्ण के पास गए और तब कान्हा ने तर्जनी पर गोवर्धन  पर्वत उठा लिया। पूरे सात दिन तक  भारी वर्षा हुई पर ब्रजवासी गोवर्धन पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे । सुदर्शन चक्र ने उस दौर में बड़ा काम किया और वर्षा के जल को सुखा दिया। बाद में इंद्र ने कान्हा से माफ़ी मांगी और तब सुरभि गाय ने कान्हा का दुग्धाभिषेक किया जिस मौके पर 56 भोग का आयोजन नगर में किया गया । तब से गोबर्धन पर्वत और अन्नकूट की परंपरा चली आ रही है ।
 
 शुक्ल द्वितीया को भाई दूज मनायी जाती है।  कहा जाता है यम और यमुना सूर्य के दो बच्चे थे और एक बार यमुना ने अपने भाई को अपने साथ भोजन करने के लिए घर पर आमंत्रित किया था लेकिन यम ने अपने व्यस्त कार्यक्रम के कारण पहले तो इनकार कर दिया, लेकिन कुछ देर के बाद उसने महसूस किया कि उसे जाना चाहिए क्योंकि उसकी बहन ने उसे बहुत प्यार से आमंत्रित किया है। अंत में, वह उसके पास गया और यमुना ने उसका स्वागत किया और उसके माथे पर तिलक भी लगाया। यम वास्तव में उसके आतिथ्य से बेहद खुश हुआ और उसे एक इच्छा माँगने के लिए कहा। तब यमुना ने कहा कि जो इस दिन अपनी बहन से मिलने जाएगा, उसे मृत्यु का भय नहीं रहेगा। उनके भाई ने खुशी से ‘तथास्तु’ कहा और यही कारण है कि हम भाई दूज का त्यौहार मनाते हैं। मान्यता है यदि इस दिन भाई और बहन यमुना में स्नान करें तो यमराज आस पास भी नहीं फटकते। 
 
ऐसा  भी माना जाता है कि भगवान सूर्य के दो बच्चे यम और यमुना थे और दोनों जुड़वाँ थे लेकिन जल्द ही उनकी माँ देवी संग्या ने उन्हें अपने पिता की तरह ज्ञान प्राप्त करने के लिए छोड़ दिया। उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी परछाई छोड़ रखी थी जिसका नाम उन्होंने छाया रखा। छाया ने भी एक बेटे को जन्म दिया था जिसका नाम शनि था लेकिन उसके पिता उसे पसंद नहीं करते थे। परिणामस्वरूप, छाया ने दोनों जुड़वा बच्चों को अपने घर से दूर फेंक दिया। दोनों जुदा हो गए और धीरे-धीरे काफी समय बीतने के बाद एक रोज यमुना ने अपने भाई को मिलने के लिए बुलाया, क्योंकि वह वास्तव में पिछले काफी समय से यम से मिलना चाहती थी। जब यम, यानी मृत्यु के देवता, उनसे मिलने पहुंचे तब उन्होंने उनका खुशी से स्वागत किया। वह अपने आतिथ्य से वास्तव में काफी खुश हुए; यमुना ने उनके माथे पर तिलक लगाया और उनके लिए स्वादिष्ट भोजन भी पकाया। यम ने खुशी महसूस की और अपनी बहन यमुना से पूछा कि क्या वह कुछ चाहती है? तब यमुना ने उस दिन को आशीर्वाद देना चाहा ताकि सभी बहनें अपने भाइयों के साथ समय बिता सकें और इस दिन जो बहनें अपने भाई के माथे पर तिलक लगाएंगी, मृत्यु के देवता उन्हें परेशान नहीं करेंगे। यम इस पर सहमत हुए और कहा ठीक है परिणामस्वरूप हर वर्ष इस दिन बहनें अपने भाइयों के साथ इस अवसर को मनाती हैं ।
 
दीपावली में दीयों को जलाने की परंपरा उस समय से चली आ रही है जब रावण  की लंका पर विजय होने के बाद राम अयोध्या लौटे थे। राम के आगमन की ख़ुशी इस पर्व में देखी जा सकती है । जिस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या लौटे थे उस रात कार्तिक मॉस की अमावस थी और चाँद बिलकुल दिखाई नहीं देता था। तब नगरवासियों में अयोध्या को दीयों की रौशनी से नहला दिया । तब से यह त्यौहार धूमधाम से  मनाया जा रहा है । 

ऐसा माना जाता है दीपावली की रात यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हस परिहास करते और आतिशबाजी से लेकर पकवानों की जो धूम इस त्यौहार में दिखती है वह सब यक्षों  की ही दी हुई है  वहीँ कृष्ण भक्तों की मान्यता है इस दिन कृष्ण ने अत्याचारी राक्षस नरकासुर का वध किया था । इस वध के बाद लोगों ने ख़ुशी में घर में दिए जलाए। 

एक पौराणिक कथा के अनुसार भगवान नारायण  विष्णु ने अपने  नरसिंह रूप को  धारण कर  हिरण्यकश्यप का वध किया था और समुद्र मंथन के पश्चात प्रभु धन्वन्तरी और धन की देवी लक्ष्मी प्रकट हुई जिसके बाद से उनको खुश करने के लिए यह सब त्यौहार  के रूप में मनाया जाता है। वहीँ  जैन मतावलंबी मानते हैं कि जैन धरम के 24 वे तीर्थंकर महावीर का निर्वाण दिवस भी दिवाली को हुआ था। 

बौद्ध मतावलंबी का कहना है बुद्ध के स्वागत में तकरीबन 2500 वर्ष पहले लाखों  अनुयायियों ने दिए जलाकर दीपावली को मनाया। दीपोत्सव सिक्खों के लिए भी महत्वपूर्ण है। ऐसा माना जाता है इसी दिन अमृतसर में स्वर्ण  मंदिर का शिलान्यास हुआ था और दीपावली के दिन ही सिक्खों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह को कारागार से रिहा किया गया था। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद  ने 1833 में दिवाली के दिन ही प्राण त्यागे थे । इसलिए  उनके लिए भी इस त्यौहार का विशेष महत्व है ।
 
भारत के सभी  राज्यों में दीपावली धूमधाम के साथ मनाई जाती है। परंपरा के अनुरूप इसे मनाने के तौर तरीके अलग अलग बेशक हो सकते हैं लेकिन आस्था की झलक सभी राज्यों में दिखाई देती है। गुजरात में नमक को लक्ष्मी का प्रतीक मानते हुए जहाँ इसे बेचना शुभ माना जाता है वहीँ राजस्थान में दीपावली के दिन रेशम के गद्दे बिछाकर अतिथियों के स्वागत की परंपरा देखने को मिलती है। हिमाचल में आदिवासी इस दिन यक्ष पूजन करते हैं तो उत्तराखंड में थारु आदिवाई अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली  मनाते  हैं। बंगाल में दीपावली  को काली  पूजा के रूप में मनाया जाता है।  देश के साथ ही विदेशों में भी दीपावली की धूम देखने को मिलती है। ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक में यह में दीपावली धूम के साथ मनाया जाता है।  विदशों में भी धन की देवी के कई रूप देखने को मिलते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्रकट का दिन माना जाता है।
 
भारतीय परंपरा उल्लू को लक्ष्मी का वाहन मानती है लेकिन महालक्ष्मी स्रोत में गरुण अथर्ववेद में हाथी को लक्ष्मी का वाहन बताया गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू ही बताया गया है लेकिन प्राचीन यूनान में धन की अधिष्ठात्री देवी के तौर पर पूजी जाने वाली हेरा का वाहन मोर है। 

भारत के अलावा विदेशों में भी लक्ष्मी पूजन के प्रमाण मिलते हैं। कम्बोडिया में शेषनाग पर आराम कर रही विष्णु जी के पैर दबाती एक महिला की मूरत के प्रमाण बताते हैं यह हमारी देवी लक्ष्मी ही  है।  प्राचीन यूनान के सिक्कों पर भी लक्ष्मी की आकृति देखी जा सकती है। रोम में चांदी  की थाली में लक्ष्मी की आकृति होने के प्रमाण इतिहासकारों ने दिए हैं। पडोसी देश श्रीलंका में भी पुरातत्वविदों  को खनन और खुदाई में कई भारतीय देवी देवताओं की कई मूर्तियां  मिली हैं जिनमे लक्ष्मी भी शामिल है । इसके अलावा थाईलैंड ,जावा , सुमात्रा, मारीशस , गुयाना , अफ्रीका ,जापान, अफ्रीका जैसे देशों में भी इस धन की देवी की पूजा की जाती है। यूनान में आइरीन, रोम में फ़ोर्चूना , ग्रीक में दमित्री को धन की देवी एक रूप में पूजा जाता है तो  यूरोप में भी एथेना ,मिनर्वा और एलोरा का महत्व है।  
 
 समय बदलने के साथ ही बाजारवाद के दौर के आने के बाद आज बेशक इसे मनाने के तौर तरीके भी बदले हैं लेकिन आस्था और भरोसा ही है जो कई दशकों तक परंपरा के नाम पर लोगों को एक त्यौहार के रूप में देश से लेकर विदेश तक के प्रवासियों को एक सूत्र में बाँधा है।

 बाजारवाद के इस दौर में  घरों में मिटटी के दीयों की जगह आज चीनी उत्पादों और लाइट ने ले ली है लेकिन यह त्यौहार उल्लास का प्रतीक तभी बन पायेगा जब हम उस कुम्हार के बारे में भी सोचें  जिसकी रोजी रोटी मिट्टी के उन दीयों  से चलती है जिसकी ताकत चीन के सस्ते दीयों ने  आज छीन ली है।  हम पुराना वैभव लौटाते हुए यह तय करें कि कुछ दिए उस कुम्हार के नाम  इस दीपावली  में खरीदें जिससे उसकी भी आजीविका चले और उसके घर में भी खुशहाली आ सके।
 
इस त्यौहार में भले ही महानगरों में आज  चकाचौंध का माहौल है और हर दिन अरबों के वारे न्यारे किये जा रहे हैं लेकिन सरहदों में दुर्गम परिस्थिति में काम करने वाले जवानों के नाम भी हम एक दिया जलाये जो दिन रात सरहदों की निगरानी करने में मशगूल हैं  और अभी भी दीपावली अपने परिवार से दूर रहकर मना  रहे हैं । इस दीपावली पर हम यह संकल्प भी करें तो बेहतर रहेगा यदि इस बार की दीपावली हम पौराणिक स्वरुप में मनाते हुए स्वदेशी उत्पादों का इस्तेमाल करें। पटाखों के शोर से अपने  को दूर करते हुए पर्यावरण का ध्यान रखें और कुम्हार के दीयों से  अपना घर रोशन ना करें बल्कि समाज को भी नहीं राह दिखाए  तो तब कुछ बात बनेगी। 

Wednesday 25 October 2023

स्पिन के जादूगर की अंतिम 'फ्लाइट '


 





उनकी स्पिन  में गजब का जादू था।  जब वो मैदान पर उतरते  और कलाई से गेंद  की दिशा  को मोड़  देते थे तो दुनिया के बल्लेबाजों का मान मर्दन कर देते थे।  उनके सामने बैटिंग करने पर खिलाडियों  के पहले ही  पसीने छूट जाया करते थे। उनकी गेंद  की फ्लाइट को देखकर दुनिया के अच्छे बल्लेबाज भी चकमा खा जाते थे।  अगर कहा जाए उनकी  गिनती बाएं हाथ के दुनिया के  महानतम स्पिनर के रूप में की जाती थी तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।  सही मायनों में अगर कहा जाए तो  इरापल्ली प्रसन्ना, बीएस चंद्रशेखर और एस. वेंकटराघवन की तिकड़ी के साथ उन्हें भारतीय स्पिन गेंदबाज़ी में नई क्रांति लाने का श्रेय दिया जाता है।

 पचास के दशक में हमारे पास वीनू मांकड और सुभाष गुप्ते जैसे विश्वस्तरीय स्पिनर थे लेकिन  सत्तर और अस्सी  के दशक में भारत की स्पिन को दुनिया के पटल पर अगर किसी ने नई पहचान दिलाई तो उसमें बिशन सिंह बेदी ही  थे।  जिस दौर में बेदी ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण किया उस  समय  दुनिया भर में तेज़ गेंदबाज़ों का जलवा हुआ करता  था। होल्डिंग, रॉबर्ट्स, गार्नर, मार्शल, क्लार्क , लिली , टॉमसन सरीखे रफ़्तार के लम्बे  तेज गेदबाजों के सामने  सही से भी बैटिंग भी  नहीं की जा सकती थी । उस दौर में बिशन सिंह बेदी ने अपनी कलाई के जादू के आसरे दुनिया के पटल पर खास पहचान बनाई। बिशन सिंह बेदी ने भारत के खिलाफ  67 टेस्ट मैच खेले और 28.71 के शानदार औसत से 266 विकेट हासिल किए। इस दौरान वो भारत की ओर से सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज भी रहे। उनके पास  लूप और स्पिन के साथ-साथ क्रीज पर बल्लेबाजों को मात देने के लिए खुद के पिटारे में  बेहतर आर्म स्पीड रिलीज पॉइंट्स में फ़्लाइट  भी मौजूद थी ।
 
 भारतीय क्रिकेट में स्पिन को नई  दिशा देने में  बिशन सिंह बेदी के योगदान को कभी भुलाया ही नहीं जा सकता।  अपनी फिरकी से उन्होनें  दुनिया भर के बल्लेबाज़ों को अपने कौशल से बाँधा,  साथ ही घरेलू क्रिकेट दिल्ली की ओर से  खेलते हुए  अपने  दो रणजी ट्रॉफ़ी  खुद  के नेतृत्व में  जीते।  यही नहीं 370  के प्रथम श्रेणी के मैचों  में रिकॉर्ड 1560 विकेट हासिल कर वह एक समय सबसे ज़्यादा विकेट लेने वाले खिलाड़ी  भी बने। वह भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट में 200 विकेट लेने वाले पहले गेंदबाज थे।  बिशन सिंह बेदी भारतीय टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में पहले बाएं हाथ के स्पिनर बने थे जिन्होंने 266 विकेट लेने का कारनामा महज  67 मैच में  कर दिखाया जो  एक  बड़ी उपलब्धि उस दौर में थी जब क्रिकेट में आज के दौर के जैसे संसाधन नहीं हुआ करते थे ।अपने खेल के जरिये उन्होंने दुनिया की विभिन्न टीमों को  खेल के सही मायने  सिखाये । 
 
बिशन सिंह बेदी की अलहदा शख़्सियत उन्हें महान खिलाडियों की ऐसी श्रेणी में रखती है जो खेल भावना से खेल खेला करते थे।  एक बार  1976 के सबीना पार्क में टेस्ट मैच चल रहा था जब वेस्ट इंडियन कप्तान क्लाइव लॉयड ने  ऑस्ट्रेलिया के लिली-टॉमसन से त्रस्त होकर तेज़ गेंदबाज़ी को अपना हथियार बनाया और भारतीय बल्लेबाज़ों को मैदान पर अपने निशाने पर लिया तो  तो बिशन सिंह बेदी ने विरोध में पारी घोषित कर दी। उनका स्पष्ट कहना था कि ऐसा खेल उन्हें मंज़ूर नहीं है जिसमें इस तरह की आक्रामकता हो। उस टेस्ट को अब भी इस विरोध के लिए याद किया जाता है।  इस घटना ने सिखाया बेदी अपने उसूलों पर चलने वाले एक बेहतर इंसान थे और बेख़ौफ़ बोलने में माहिर थे ।  
 
 बिशन सिंह का जन्म 25 सितंबर 1946 को अमृतसर पंजाब में हुआ था।  बेदी ने भारत के लिए 1966 में टेस्ट डेब्यू किया और वह अगले 13 साल तक टीम इंडिया के लिए सबसे बड़े मैच विनर साबित हुए। गेंदबाजी के अलावा बिशन सिंह बेदी के अंदर बेहतरीन नेतृत्व  की काबिलियत भी थी ।  बिशन सिंह बेदी को 1976 में टीम इंडिया का कप्तान नियुक्त किया गया और उन्होंने 1978 तक टीम इंडिया की कमान संभाली।  बिशन सिंह बेदी ने 22 टेस्ट मैचों में टीम इंडिया की कप्तानी की।  बिशन सिंह बेदी को ऐसे कप्तान के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने टीम के अंदर लड़ने की क्षमता पैदा की और अनुशासन को लेकर नए बैंच मार्क स्थापित किए। बिशन सिंह बेदी को भारतीय टीम की कप्तानी करने का भी मौका मिला था। उन्हें 1976 में यह जिम्मेदारी सौंपी गई थी। बेदी को महान क्रिकेटर मंसूर अली खान पटौदी की जगह कप्तान बनाया गया था। बतौर कप्तान उन्हें पहली जीत वेस्टइंडीज के खिलाफ पोर्ट ऑफ स्पेन में 1976 के दौरे पर मिली थी।  कप्तान के तौर पर बिशन सिंह बेदी ने 1976 में उस समय की सबसे मजबूत टीम वेस्टइंडीज को उसी की धरती पर जाकर टेस्ट सीरीज में मात दी। इसके बाद इंग्लैंड के खिलाफ घरेलू मैदान पर टेस्ट सीरीज में 3-1, ऑस्ट्रेलिया दौरे पर टेस्ट सीरीज में 3-2 और पाकिस्तान दौरे पर टेस्ट सीरीज 2-0 से मिली हार के बाद उन्हें कप्तानी से हटा दिया गया था। उनके बाद सुनील गावस्कर कप्तान बने ।
 
भारत के लिए 67 टेस्ट मैच में उन्होंने 266 विकेट लिए। उन्होंने 15 बार पारी में पांच विकेट लेने का कारनामा किया और एक बार मैच में 10 विकेट भी लिए। वहीं, 10 वनडे मैच में उन्होंने सात विकेट झटके।बेदी ने भारत के लिए कुल 77 अंतरराष्ट्रीय मैच खेले थे। इस दौरान उन्होंने 273 विकेट झटके । बेदी को भारतीय टेस्ट इतिहास के पुरोधा बेहतरीन स्पिनरों में आज भी गिना जाता है।  बेदी ने भारत के लिए 1966 से 1979 तक टेस्ट क्रिकेट खेला था। बेदी ने 1969–70 में कोलकाता टेस्ट में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ एक पारी में 98 रन देकर सात विकेट लिए थे। यह एक पारी में उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा। वहीं, मैच की बात करें तो 1977–78 में पर्थ के मैदान पर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 194 रन देकर कुल 10 विकेट झटके थे। उन्होंने टेस्ट में इकलौता अर्धशतक 1976 में कानपुर टेस्ट में न्यूजीलैंड के खिलाफ लगाया था।बिशन सिंह बेदी भारतीय क्रिकेट इतिहास के इकलौते ऐसे स्पिनर  रहे , जिन्होंने अपने पूरे प्रथम श्रेणी क्रिकेट  में 1560 विकेट लिए। बेदी ने दो उपविजेता रहने के अलावा, 1978-79 और 1979-80 में दिल्ली को प्रतिष्ठित रणजी ट्रॉफी खिताब भी दिलाया। इंग्लैंड में काउंटी क्रिकेट में नॉर्थम्पटनशायर के लिए भी उनका कार्यकाल सफल रहा। 1972 और 1977 के बीच क्लब के लिए 102 मैचों में, बेदी ने 20.89 के औसत के साथ 434 विकेट हासिल किए, जो इंग्लिश काउंटी क्रिकेट सर्किट में किसी भारतीय द्वारा सबसे अधिक है।  बिशन सिंह बेदी के नाम 60 ओवरों के वनडे फॉर्मेट में सबसे किफायती स्पेल डालने का विश्व रिकॉर्ड है। बेदी ने ईस्ट अफ्रीका के खिलाफ 1975 में 12 ओवर के अपने स्पेल में सिर्फ 6 दिए थे। इस दौरान उन्होंने 8 मेडन ओवर निकाले जबकि एक विकेट भी लिय था।
 
क्रिकेट को अलविदा कहने के बाद भी बिशन सिंह बेदी का जुड़ाव इस खेल के लिए खत्म नहीं हुआ। लंबे समय तक बिशन सिंह बेदी ने खुद को इस खेल के साथ जोड़े रखा।  अपने खेल करियर के बाद, बेदी ने युवा क्रिकेटरों को कोचिंग देना शुरू कर दिया, जिसमें मनिंदर सिंह और मुरली कार्तिक  उनकी नर्सरी से निकले खिलाड़ी थे जिन्होंने भारत के झंडे दुनिया में अपनी गाइडबाजी से गाढ़े।  उन्होंने घरेलू क्रिकेट में पंजाब, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर टीमों को भी कोचिंग दी, जिसमें पंजाब ने 1992-93 में रणजी ट्रॉफी जीती।  नब्बे के दशक में वो कुछ समय के लिए  भारतीय टीम के मैनेजर भी नियुक्त किये गए । वह खेल से जुड़े सभी मामलों पर एक मुखर, निडर और निडर आवाज थे । बेदी ने क्रिकेट की दुनिया में बतौर कमेंटेटर भी पहचान बनाई।  कोच के तौर पर भी बिशन सिंह बेदी लंबे समय तक क्रिकेट के साथ जुड़े रहे । इतना ही नहीं भारत को स्पिन डिपार्टमेंट में मजबूत बनाए रखने के लिए बिशन सिंह बेदी ने नए खिलाड़ियों को ट्रेनिंग दी और भारतीय क्रिकेट के लिए अंतिम समय तक अहम योगदान देते रहे। बतौर भारत के कप्तान, कोच ,चयनकर्ता  के तौर पर उनके भारतीय क्रिकेट के प्रति  योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। उन्हें 1969 में अर्जुन पुरस्कार, 1970 में पद्म श्री और 2004 में सी.के. नायडू लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
 
क्रिकेट के  क्षेत्र में बिशन पाजी  नाम बहुत बड़ा है।  उनकी खेल की हर बारीकी पर तेज नजर रहती थी और  खिलाडियों को भी आगे बढ़ने को प्रेरित करती थीं। उनके निधन से भारतीय क्रिकेट जगत में  एक ऐसा शून्य भर गया  है, जिसे भर पाना कठिन होगा । उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी क्रिकेट की सेवा  के लिए लगा दी और अंतिम सांस तक  इसी खेल के लिए जिए।  उनका  व्यक्तित्व  क्रिकेट के प्रति एक अलग प्रकार चेतना से भरा हुआ था।  क्रिकेट की  गहरी समझ उनमें साफ दिखती थी।  क्रिकेट पर बोलते  हुए वो एक संत जैसा ज्ञान देते थे जो  गहराई के साथ हर किसी खिलाड़ी के जीवन में उतर जाता था।  मेरे जैसे पत्रकारों के लिए  वे हमेशा क्रिकेट में महान हीरो की तरह रहे हैं जिन्होंने खेल को न केवल जिया बल्कि अपनी विशेषताओं से  खुद को हर जगह साबित किया । उनके साथ  चाय पर चर्चा करते हुए  बैठना, चर्चा करना हमेशा अच्छा लगता था । वे मुझे  खेल पर लिखने के लिए हमेशा  नए विचार देते थे।  अंतिम बार कोरोना से पहले मैं उनके साथ दिल्ली के एयरपोर्ट स्थित  लेमन ट्री होटल  में एक कार्यक्रम के दौरान साथ बैठा था जहाँ उनके साथ  क्रिकेट पर लम्बी चर्चा हुई।  उस कार्यक्रम के दौरान भी उन्होनें  मिलने-जुलने से उन्होंने परहेज नहीं किया और मुलाक़ात में गर्मजोशी दिखाते हुए  अपने हाथों से मुझे चाय पिलाई ।उनकी उस मुलाक़ात से क्रिकेट के पुराने दौर और नए दौर के बदलावों की आहट को मैंने करीब से महसूस किया। 


उन्होंने अपने दौर के टेस्ट मैचों और आज के आईपीएल की चमक की तुलना खुलकर करते हुए कहा इंडियन प्रीमियर लीग मुनाफे का धंधा है। मुनाफा मनोरंजन से जुटाया जाता है, तो फिल्म अभिनेताओं ,अभिनेत्रियों और  कारोबारियों को इसमें  लिया गया । क्रिकेट का तत्व कहीं हल्का पड़  गया लेकिन सेलेब्रिटियों के चेहरे काम आएंगे। अमेरिका के एनबीए व बेसबॉल की व्यावसायिक लोकप्रियता से काफी प्रभावित होकर  पूंजी बटोरने के सारे तत्व वहां से लिए। मल्टीप्लेक्स आपकी जेब कब खाली कर देते हैं? और कैसे कर देते हैं? आप सोचते ही रह जाते हैं लेकिन आईपीएल क्रिकेट का  मुनाफा कमाने का समीकरण ही ऐसा है। इतना सीधा सपाट और खरा खरा  बोलने वाले खिलाड़ी  मैंने आज तक नहीं देखे।  
 
कोरोना के बाद जब भी यदा-कदा  उनसे बात हुई तो वे अस्वस्थ ही रहे  और इस दौरान उन्हें एक घुटने की सर्जरी से भी  गुजरना पड़ा जिसके बाद लोगों से मिलना जुलना कम हो गया फिर भी उन्होनें जल्द मिलने का भरोसा जगाया । पाजी  का पूरा जीवन क्रिकेट की एक  पाठशाला से कम नहीं था ऐसा उनके साथ मिलने और क्रिकेट के विभिन्न प्रसंगों पर चर्चा करते हुए मुझे लगा। उनसे मिलने की मेरी कसक अधूरी ही रह गई । शायद अब ऐसे दुनिया के  महान स्पिनर से मैं कभी नहीं मिल पाऊँगा। उनके  निधन के बाद  भारतीय क्रिकेट जगत में एक ऐसी रिक्तता उभर गयी है जिसकी भरपाई कर पाना इतना आसान नहीं है। उनके साथ बिताए समय ने  मेरे क्रिकेट के प्रति ज्ञान को समृद्ध किया लेकिन अब उनकी यादें ही हमारा संबल हैं।